३-महावग्ग [ १९१७ साधु-ब्राह्मण-युवत (सभी) प्रजाको, स्वयं समझ-साक्षात्कारकर जानते हैं। वह आदिमें कल्याण- (-कारक), मध्यमें कल्याण (-कारक), अन्तमें कल्याण (-कारक) धर्मका, अर्थ-सहित-न्यञ्जन-सहित उपदेश करते हैं । वह केवल पूर्ण और शुद्ध ब्रह्मचर्यका प्रकाश करते हैं । इस प्रकारके अर्हत् लोगोंका दर्शन करना उत्तम है।" मगध-राज श्रेणिक वि वि सा र बारह लाख म ग ध-निवासी ब्राह्मणों और गृहस्योंके साय जहाँ भगवान् थे वहाँ गये। जाकर भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठ गये। वह बारह लाख मगध- निवासी ब्राह्मण गृहस्थ भी--कोई भगवान्को अभिवादनकर, कोई भगवान्से कुशल प्रश्न पूछकर, कोई भगवान्की ओर हाथ जोळकर, कोई भगवान्को नाम-गोत्र सुनाकर, कोई कोई चुप-चापही एक ओर बैठ गये। तव उन बारह लाख मगधके ब्राह्मणों, गृहस्थोंके (चित्तमें) होने लगा- "क्योंजी ! महाश्रमण (गौतम) उ रु वे ल - का श्य प का शिप्य है, अथवा उल्वेल-काश्यप महाश्रमणका शिष्य है ?" तब भगवान्ने उस बारह लाख मगध-वासी ब्राह्मणों और गृहस्थोंके चित्तके वितर्कको जान, आयुष्मान् उरुवेल-काश्यपसे गाथामें कहा- "हे उरुबेल-वासी! हे तपः कृशोंके उपदेशक ! क्या देखकर (तूने) आग छोळी ? काश्यप ! तुमसे यह बात पूछता हूँ, तुम्हारा अग्निहोत्र कैसे छूटा ?' (काश्यपने कहा)-“रूप, शब्द और रसरूपी कामभोगोंमें, स्त्रियोंके रूप शब्द, और रसमें हवन करते हैं, काम-भोगोंके रूप शब्द और रसमें 'कामेष्ठि-यज्ञ करते हैं। यह रागादि उपवियाँ मल हैं, (मैने) यह जान लिया, इसलिये मैं यज्ञ और होमसे विरक्त हुआ भगवान्ने (कहा)--“हे काश्यप ! रूप शब्द और रसमें तेरा मन नहीं रमा। तो देव-मनुष्य- लोकमें कहाँ तेरा मन रमा, काश्यप ! इसे मुझे कह।" "काम-मदमें अविद्यमान, निर्लेप, शांत रागादि-रहित (निर्वाण-) पदको देखकर । निर्विकार, दूसरेकी सहायतासे न पार होने वाले (निर्वाण-) पदको देखकर (मैं) इष्ट और यज्ञ और होमसे विरक्त हुआ।" तब आयुष्मान् उरुवेल-काश्यप आसनसे उठ, उपरने (उत्तरासंग) को एक कंधेपर कर, भगवान्के पैरोंपर शिर रख भगवान्से बोले-“भन्ते ! भगवान् मेरे गुरु हैं, मैं शिप्य हूँ। भन्ते ! भगवान् मेरे गुरु हैं, मैं शिष्य हूँ।" तव उन बारह लाख मगध-वासी ब्राह्मणों और गृहस्थोंके (मनमें) हुआ-"उरुवेल-काश्यप महा-श्रमणका शिष्य है।" तव भगवान्ने उन बारह लाख मगध-वासी ब्राह्मणों और गृहस्थोंके चित्तकी वात जान आनुपूर्वी कथा० कही० । तब विविसार आदि ग्यारह लाख मगध-वासी ब्राह्मणों और गृहस्थोंको उसी आसनपर "जो कुछ पैदा होनेवाला है, वह नाशमान है" यह विरज-निर्मल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ; और एक लाख उपासक बने । तव धर्मको जानकर, प्राप्तकर, विदितकर, अवगाहनकर सन्देह-रहित, विवाद-रहित बन भग- वान्के धर्ममें विशारद और स्वतंत्र हो, विम्बिसारने भगवान्से कहा- "भन्ते ! पहिले कुमार-अवस्थामें मेरी पाँच अभिलापायें थीं, वह अब पूरी हो गईं। भन्ते ! पहिले कुमार अवस्थामें (चित्तमें) यह होता था--"(क्या ही अच्छा होता) यदि मुझे (राज्यका) अभिपेक मिलता।" यह मेरी....पहिली अभिलापा थी, जो अब पूरी हो गई है । “मेरे राज्यमें अर्हत् यथार्थ बुद्ध आते" यह मेरी....दूसरी अभिलापा 1" १ किसी कामनासे किया जानेवाला यज्ञ ।
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