१०१।१७ ] विविसारकी दीक्षा [ ९७ थी, वह भी अब पूरी होगई । "उन भगवान्की मैं सेवा करता"; यह मेरी तीसरी अभिलाषा थी, वह भी अब पूरी हो गई। “वह भगवान् मुझे धर्म-उपदेश करते" यह मेरी चौथी अभिलाषा थी, वह भी अब पूरी हो गई । “उन भगवान्को मैं जानता" यह पाँचवीं अभिलाषा थी, वह भी अब पूरी होगई। आश्चर्य है ! भन्ते !! आश्चर्य है ! भन्ते ! ! जैसे औंधेको सीधा कर दे, बँकेको उघाळ दे, भूलेको रास्ता बतला दे, अंधकारमें तेलकी रोशनी रख दे, जिसमें आँखवाले रूप देखें; ऐसेही भगवान्ने अनेक प्रकारसे धर्मको प्रकाशित किया। इसलिये में भगवान्की शरण लेता हूँ, धर्म और भिक्षु-संघकी भी। आजसे भगवान् मुझे हाथ-जोळ शरणमें आया उपासक जानें। भिक्षु-संघ-सहित कलके लिये मेरा निमन्त्रण स्वीकार करें।" भगवान्ने मौन रह उसे स्वीकार किया। तब मगध-राज श्रेणिक विम्बिसार भगवान्की स्वी- कृतिको जान, आसनसे उठ भगवान्को अभिवादनकर, प्रदक्षिणाकर चला गया। मगध-राज श्रेणिक विम्बिसारने उस रातके बीतनेपर, उत्तम खाद्य-भोज्य तैयार करा, भगवान्को कालकी सूचना दी- भन्ते ! काल होगया, भोजन तैयार है। तब भगवान् पूर्वाह्ण समय सु-आच्छादित (हो), (भिक्षा-) पात्र और चीवर ले, सभी एक सहस्र पुराने जटिल-भिक्षुओंवाले महान् भिक्षुसंघके साथ राजगृहमें प्रविष्ट उस समय देवोंका इन्द्र शक्र ब्राह्मण-कुमारका रूप धारणकर बुद्ध स हि त भिक्षु-संघके आगे आगे यह गाथाएँ गाता हुआ चलता था- “(भगवान् राजगृहमें प्रवेश कर रहे हैं) पुराण जटिलोंके साथ (वह) संयमी; मुक्तोंके साथ वह मुक्त, कुंदन जैसे वर्णवाले, भगवान् राजगृहमें ॥ पुराने शान्त जटिलोंके साथ (वह) शान्त, मुक्तोंके साथ (वह) मुक्त । कुंदन जैसे० ।। पुराने मुक्त जटिलोंके साथ (वह) मुक्त, विप्रमुक्तोंके साथ (वह) विप्रमुक्त । कुंदन जैसे०।। पुराने पार उतरे जटिलोंके साथ (वह भव) पार उतरे विप्रमुक्तोंके साथ (वह) विप्रमुक्त । कुंदन जैसे०॥ दश (आर्य-) निवास, दश-वल, दश-धर्म (=कर्मपथ-) सहित, दशों (अशैक्ष्य अंगो) से युक्त । दश सौ (पुरुषोंसे) युक्त (वह) भगवान् राजगृहमें प्रवेश करते हैं। लोग देवोंके इन्द्र श क को देखकर ऐसा कहते थे- "अहो ! यह ब्राह्मण-कुमार सुंदर है। अहो ! यह कुमार दर्शनीय है। अहो ! यह कुमार चित्तको भला लगनेवाला है। किसका यह माणवक है ?" ऐसा कहनेपर देवोंका इन्द्र शक्र उन मनुप्योंसे गाथामें बोला- "जो धीर, सबसे बुद्धिमान्, दान्त, शुद्ध (और) अनुपम पुरुष हैं। लोकमें अर्हत्, सुगत हैं, उनका मैं परिचारक हूँ।।" तव भगवान्, जहाँ मगध-राज श्रेणिक विम्बिसारका घर था, वहाँ गये। जाकर भिक्षु-संघ- सहित विछे आसनपर बैठे । तव मगधराजने....बुद्धसहित भिक्षु-संघको अपने हाथसे उत्तम भोजन कराया, संतृप्त कराया, पूर्ण कराया; और भगवान्के पात्रसे हाथ खींच लेनेपर एक ओर बैठ गया। एक ओर वैठे मगध-राज....के (चित्तमें) हुआ-"भगवान् कौनसी जगह विहार करें ? जो कि गाँवसे न बहुत दूर हो, न बहुत समीप हो, इच्छुकोंके आने जाने लायक हो; (जहाँ) दिनमें बहुत भीळ न हो (और) रातमें लोगोंका हल्ला गुल्ला न हो; मनुप्यके लिये एकान्त स्थान हो, एकान्तवासके योग्य हो?" मगध-राज....को हुआ-"यह हमारा वे ळु (वेणु) व न उद्यान गाँवसे न बहुत दूर है, न बहुत समीप०, तव
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