१०० ] ३-महावग्ग [ १२।१ "भन्ते! हमें भगवान् प्रव्रज्या दें, उपसम्पदा दें।" भगवान्ने कहा-"भिक्षुओ आओ (यह) धर्म सु-व्याख्यात है। अच्छी प्रकार दुःखके भयके लिये ब्रह्मचर्य-पालन करो।" यही उन आयुष्मानोंकी उपसम्पदा हुई । उस समय म ग ध के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध कुल-पुत्र भगवान्के शिष्य होते थे। लोग (देवकर) हैरान होते, निन्दा करते और दुःखी होते थे-"अपुत्र बनानेको श्रमण गौतम (उतरा) है, विधवा बनानेको श्रमण गौ त म (उतरा) है, कुल-नाशके लिये श्रमण गौतम (उतरा) है। अभी उसने एक सहस्र जटिलोंको साधु बनाया। इन ढाई सौ सं ज य के परिवाजकोंको भी साधु बनाया। अव म ग ध के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध कुल-पुत्र भी श्रमण गौतमके पास साधु बन रहे हैं।" वह भिक्षुओंको देख इस गाथाको कह, ताना देते थे- "महाश्रमण म ग धों के १गि रिव्रज में आया है। संजयके सभी चेलोंको तो ले लिया, अव किसको लेनेवाला है?" भिक्षुओंने इस बातको भगवान्से कहा। भगवान्ने कहा- "भिक्षुओ! यह शब्द देर तक न रहेगा। एक सप्ताह बीतते लोप हो जायगा। जो तुम्हें उस गाथासे ताना देते हैं...। उन्हें तुम इस गाथासे उत्तर दो- "महावीर तथागत सच्चे धर्म (के रास्ते) से ले जाते हैं । धर्मसे ले जाये जातोंके लिये बुद्धिमानोंको हसद क्यों ?" ..लोगोंने कहा-"शा क्य पुत्री य (=शाक्य-पुत्र वुद्धके अनुयायी) श्रमण, धर्म (के रास्ते) से ले जाते हैं, अधर्मसे नहीं।" सप्ताह भर ही वह शब्द रहा। सप्ताह बीतते-बीतते लोप होगया । चतुर्थ भाणवार समाप्त ॥४॥ 5२-शिष्य, उपाध्याय आदिके कर्त्तव्य (१) शिप्यका कर्तव्य उस समय भिक्षु उ पा ध्या य के बिना रहते थे, (इसलिये वह ) उपदेश अनुशासन न किये जानेसे, विना ठीकसे पहने, विना ठीकसे ढाँके, बेसहूरीसे भिक्षाके लिये जाते थे। खाते हुए मनुष्यों के भोजनके ऊपर, खाद्यके ऊपर...पेयके ऊपर जुठे पात्रको बढ़ा देते थे। स्वयं दाल भी भात भी मांगकर खाते थे। भोजनपर बैठे हल्ला मचाते रहते थे। लोग हैरान होते, धिक्कारते और दुःखी होते थे। वयों शा क्य पु त्री य श्रमण विना ठीकसे पहिने० भोजनपर बैठे भी हल्ला मचाते रहते हैं, जैसे कि ब्राह्मण ब्राह्मण-भोजमें। भिक्षुओंने लोगोंका हैरान होना० सुना। जो भिक्षु निर्लोभी सन्तुष्ट, लज्जी, संकोचशील, शिक्षार्थी थे, वह हैरान हुए, धिक्कारने लगे, दुखी हुए० ।...। तब उन भिक्षुओंने भग- वान्से इस बातको कहा।...। भगवान्ने धिक्कारा–'भिक्षुओ! उन नालायकोंका (यह करना) अनुचित है . .अयोग्य है. . .असाधुका आचार है, अभव्य है, अकरणीय है। भिक्षुओ ! कैसे वह १ २ राजगृह। जानकर अपराध नहीं करता, अपराध हो जानेपर छिपाता नहीं। न जानेके रास्ते नहीं जाता, ऐसा व्यक्ति लज्जी कहा जाता है।" (-अट्ठकथा)
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