पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७१।१८ ] सारिपुत्र और मौद्गल्यायनकी प्रव्रज्या [ ९९ नाशमान् है;" यह विरज-विमल धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ। यही धर्म है, जिससे कि शोक-रहित पद, प्राप्त किया जा सकता है ; और जिसे कि कल्पोंसे लाखों विना देखे छोळ गये थे। तव सारिपुत्र परिव्राजक जहाँ मौद्गल्यायन परिव्राजक था, वहाँ गया। मौ द् ग ल्या य न परि- ब्राजकने दूरसे ही सारिपुत्र परिव्राजकको आते देखा। देखकर सारिपुत्र परिव्राजकसे कहा—आवुस ! तेरी इन्द्रियां प्रसन्न हैं, तेरी कान्ति शुद्ध तथा उज्वल हैं। तूने आवुस ! अमृत तो नहीं पा लिया ?" "हाँ आवुस ! अमृत पा लिया।" "आवुस ! कैसे तूने अमृत पाया ?" "आवुस ! मैंने आज रा ज गृह में अश्वजित् भिक्षुको अति सुन्दर....आलोकन= विलोकनसे .....भिक्षाके लिये घूमते देखकर.... (सोचा) 'लोकमें जो अर्हत् हैं....यह भिक्षु उनमेंसे एक हैं ।'....मैने.... अश्वजित्.....से पूछा....तुम्हारा गुरु कौन है....। अश्वजित्ने यह धर्मपर्याय कहा-हेतुसे उत्पन्न । तव मौद्गल्यायन रेवाजकको इस धर्म-पर्यायके सुननेसे-"जो कुछ उत्पन्न होनेवाला है, वह सव नाशमान है"--यह विमल=विरज धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ ।...... मौद्गल्यायन परिव्राजकने सारिपुत्र परिव्राजकसे कहा-"चलो चलें आवुस !! भगवान्के पास, वह हमारे गुरु हैं। और यह (जो) ढाई सौ परिव्राजक हमारे आश्रयसे-हमें देखकर यहाँ विहार करते हैं; उन्हें भी वूझलें (और कहदें)-जैसी तुम लोगोंकी राय हो वैसा करो-" तव सारिपुत्र, मौद्गल्यायन जहाँ वह परिव्राजक थे, वहाँ गये; जाकर उन परिव्राजकोंसे वोले-"आवुसो! हम भगवान्के पास जाते हैं, वह हमारे गुरु हैं ।" "हम आयुष्मानोंके आश्रयसे—आयुप्मानोंको देखकर, यहाँ विहार करते हैं । यदि आयुप्मान् महाश्रमणके शिष्य होंगे, तो हम सबभी महाश्रमणके शिष्य होंगे।" तव सारिपुत्र और मौद्गल्यायन सं ज य परिबाजकके पास गये । जाकर संजय परि- व्राजकसे वोले- "आवुस ! हम भगवान्के पास जाते हैं, वह हमारे गुरु हैं ।" "नहीं, आदुनो! मत जाओ। हम तीनों (मिलकर) (इस जमातकी महन्थाई करेंगे।" "दूसरी बार भी सारिपुत्र और मौद्गल्यायनने संजय परिव्राजकसे कहा--"....हम भगवान्के पास जाते हैं....।" "....मत जाओ! हम तीनों (मिलकर) इस जमातकी महन्थाई करेंगे।" तीसरी बार भी....। तव सारिपुत्र और मौद्गल्यायन उन ढाई सौ परिव्राजकोंको ले, वे णु व न चले गये । संजय परिव्राजकको वहीं मुंहसे गर्म खून निकल आया। भगवान्ने दूरसे ही सारिपुत्र और मौद्गल्यायनको आते हुए देख भिक्षुओंको सम्बोधित किया- "भिक्षुओ ! यह दो मित्र को लि त (=मौद्गल्यायन) और उ पति प्य (=सारिपुत्र) आ रहे हैं। यह मेरे प्रधान शिष्य-युगल होंगे, भद्र-युगल होंगे।" गम्भीर ज्ञान अनुपम, भवनाशक, मुक्त, (और) दुर्लभ (निर्वाण) के विषयमें वेणुवनमें बुद्धने हमारे लिये भविप्यद्वाणी की ।।- को लि त और उप ति प्य यह दो मित्र आ रहे हैं। यह मेरे दो मुख्य शिप्य उत्तम जोळी होंगे।" तव सारिपुत्र और मौद्गल्यायन जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये, जाकर भगवान्के चरणोंमें शिर पुकाकर वोले- 11