पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१४८

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११२।३ ] शिष्यके कर्तव्य [ १०३ चाहिये न किसीसे चीवर लेना चाहिये. न किसीको परिष्कार (=उपयोगी सामान) देना चाहिये. न किसीसे परिष्कार लेना चाहिये ; न किसीका वाल काटना चाहिये. न किसीसे बाल कटवाना चाहिये; न किसीकी (देह) घुसनी चाहिये, न किसीसे घुसानी चाहिये ; न किसीकी सेवा करनी चाहिये, न किसीसे सेवा करानी चाहिये ; न किसीका पीछे चलनेवाला भिक्षु बनना चाहिये, न किसीको पीछे चलनेवाला भिक्षु बनाना चाहिये ; न किसीका भिक्षान्न ले आना चाहिये, न किसीसे भिक्षान्न लिवाना चाहिये । उपाध्यायको विना पूछे न गाँवमें जाना चाहिये, न (साधनाके लिये) श्मशानमें जाना चाहिये, न (किसी) दिशाको ओर चल देना चाहिये। यदि उपाध्याय रोगी हों तो (रोगसे) उठनेकी प्रतीक्षा करते, जीवनभर सेवा करनी चाहिये। शिष्यका व्रत समाप्त । (२) उपाध्यायके कर्तव्य उपाध्यायको शिप्यसे अच्छा वर्ताव करना चाहिये। वह वर्ताव यह है-उपाध्यायको शिप्य पर...अनुग्रह करना चाहिये,...(शिष्यके लिये) उपदेश देना चाहिये.. ... .पात्र देना चाहिये...। यदि उपाध्यायको चीवर है, शिप्यको...नहीं।...चीवर देना चाहिये; या शिप्यको चीवर दिलानेके लिये उत्सुक होना चाहिये-परिप्कार' देना चाहिये । ..। यदि शिष्य' रोगी हो, तो समयसे उठकर दातुवन..., मुखोदक देना चाहिये । आसन बिछाना चाहिये। यदि खिचळी हो, तो पात्र धोकर देना चाहिये । पानी देकर, पात्र ले विना घिसे धोकर रख देना चाहिये। शिष्यके उठ जानेपर, आसन उठा लेना चाहिये। यदि वह स्थान मैला है, तो झाळू देना चाहिये। यदि शिष्य गाँव में जाना चाहता है, तो वस्त्र थमाना चाहिये। यदि पाखानेकी मटकीमें जल न हो । सेवा करनी चाहिये। उस समय शिप्य उपाध्यायके चले जानेपर, विचार-परिवर्तन कर लेनेपर (या) मर जाने पर...विना आचार्यके हो, उपदेश अनुशासन न किये जानेसे, विना ठीकसे (चीवर) पहने विना ठीकले ढंके वेसहूरीसे भिक्षाके लिये जाते थे० । भगवान्ने...भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, आचार्य (करने) की।"4 (३) हटाने और न हटाने योग्य शिष्य -(क) उस समय शिप्य उपाध्यायोंके साथ अच्छी तरह न वर्तते थे इससे जो निर्लोभी, संतुष्ट, लज्जाशील, संकोची, शिक्षा चाहनेवाले भिक्षु थे वह हैरान होते, धिक्कारते और दुःखी होते थे-"क्यों शिप्य उपाध्यायोंके साथ ठीकसे नहीं वर्तते !" तव उन भिक्षुओंने भगवान्से इस वातको कहा। "भिक्षुओ! सचमुच शिष्य उपाध्यायोंके साथ ठीकसे नहीं वर्तते ?' "सचमुच, भगवान् !" भगवान्ने धिक्कारा "भिक्षुओ! उन नालायकोंका (यह करना) अनुचित है, अ-योग्य है. माधुओंके आचारके विरुद्ध है, अ-भव्य है, अ-करणीय है। भिक्षओ! कैसे वह नालायक उपाध्यायके साथ अच्छी तरह नहीं वर्तते ? भिक्षुओ! (उनका) यह (आचरण) अप्रसन्नोंको प्रसन्न करनेके लिये नहीं है और न प्रसन्नोंको अधिक प्रसन्न करनेके लिये ; बल्कि अप्रसन्नोंको (और भी) अप्रसन्न करनेके .. 'रोगी होनेपर उपाध्यायको शिष्यकी वह सभी सेवायें करनी होगी, जो शिष्यके कर्तव्यमें (पृष्ठ १०१-२) आ चुकी हैं।