पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१५२

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१७२।६ ] उपसम्पदा कर्म [ १०७ रहने वाले हैं: सुंदर भोजन करके शान्त शय्याओंमें सोते हैं; क्यों न मैं भी शाक्य-पुत्रीय साधुओंमें साधु वनूं ।' तव उस ब्राह्मणने भिक्षुओंके पास जाकर प्रव्रज्याके लिये प्रार्थना की। भिक्षुओंने उसे प्र व ज्या और उ प संप दा दी। उसके प्रबजित होनेपर (वह) भोजोंका सिलसिला टूट गया। भिक्षुओंने (उससे) यह कहा- "आ आवुस ! भिक्षाचारके लिये चलें।" उसने उत्तर दिया--"आवुसो! मैं भिक्षाचार करनेके लिये प्रव्रजित नहीं हुआ हूँ। यदि मुझे दोगे तो खाऊँगा, यदि न दोगे तो लौट जाऊँगा।" "क्या आवुस ! तू उदरके लिये प्रव्रजित हुआ ?" "हाँ आवुस! (तव) जो भिक्षु निर्लोभी, संतुष्ट, लज्जाशील, संकोचशील और शिक्षा चाहनेवाले थे, वह हैरान हो धिक्कारते और दुखी होते थे--'कैसे यह भिक्षु इस प्रकारके सुंदर रूपसे व्याख्यात धर्म में पेटके लिये प्रव्रज्या देते हैं !' (और) यह बात भगवान्से कही। (भगवान्ने कहा)- "सचमुच भिक्षु ! तू पेटके लिये प्रव्रजित हुआ ?' "सचमुच भगवान् बुद्ध भगवान्ने निंदा की- --"नालायक कैने तू पेटके लिए ऐसे सुंदर रूपसे व्याख्यात धर्ममें प्रवृजित होगा? नालायक ! न यह अप्रसन्नोंको प्रसन्न करनेके लिये है ।" निंदा करके धार्मिक कथा कहकर भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ। उपसंपदा करते वक्त चार नि श्र यों (=जीविकाके ज़रियों)- को बतलानेकी--(१) यह प्रव्रज्या, भिक्षा माँगे भोजनके निश्रयसे है। इसके (पालनमें) जिंदगी भर तुझे उद्योग करना चाहिये। हाँ (यह) अधिक लाभ (भी तेरे लिये विहित हैं)-संघ-भोज, (तेरे) उद्देश्यसे बना भोजन, निमंत्रण, श ला का भोजन', पाक्षिक (भोज), उपोसथके दिनका (भोज), प्रतिपद्का (भोज)। '(२) पळे चीथळोंके बनाये चीवरके निश्रयसे यह प्रव्रज्या है; इसके (पालनमें) जिन्दगी भर उद्योग करना चाहिये । हाँ (यह) अधिक लाभ (भी तेरे लिये विहित हैं)--क्षौ म २ (वस्त्र), कना- सका (वस्त्र), को शे य (-रेशमी वस्त्र), कम्बल (-ऊनी वस्त्र), सन (का वस्त्र), भाँगकी (छाल- " वा वस्त्र)। “(३) वृक्षके नीचे निवास करनेके निश्रयसे यह प्रव्रज्या है; इसके (पालनमें) जिन्दगी भर उद्योग करना चाहिये। हाँ (यह) अधिक लाभ (भी तेरे लिये विहित हैं)-विहार, आ ढ् य योग (अटारी) ०, प्रासाद, हर्म्य, गुहा । (४) गोमूत्रकी औपधीके निश्रयसे यह प्रव्रज्या है। इसके (पालनमें) जिन्दगी भर उद्योग करना चाहिये। हाँ (यह) अधिक लाभ (भी तेरे लिये विहित हैं)-घी, मक्खन, तेल, मधु, खाँळ । 20 उपाध्याय-तत पाँचवा भाणवार समाप्त ॥५॥ ६ कुछ परिमित व्यक्तियोंके लिये भोज देते वक्त गिनकर उतनेकी सूचना संघमें भेज दी जाती थी और संपालाका बांटकर उन व्यक्तियोंका निश्चय करता था। 'अलसीदी छालपा दना हुआ कपका ।