पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१५१

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३-महावग्ग [ 28215 (२) दूसरी बार भी इसी वातको बोलता हूँ-“भन्ते ! संघ सुने, यह अमुक नामक, अमुक नामक आयुष्मान्का उपसम्पदापेक्षी' है। जिसको स्वीकार न हो, वह वोले। (३) तीसरी बार भी इसी बातको बोलता हूँ-"भन्ते ! संघ सुने।" ग. धा र णा-"संघको स्वीकार है, इसलिये चुप है—ऐसा समझता हूँ।" (५) उपसम्पदा कर्म १--उस समय कोई भिक्षु उपसम्पन्न होनेके बाद ही उलटा आचरण करता था। भिक्षुओंने उससे यह कहा-"आवुस ! मत ऐसा कर, यह युक्त नहीं है।" उसने उत्तर दिया-"मैंने आयुष्मानों से या च ना (=प्रार्थना) नहीं की कि मुझे उपसम्पन्न (=भिक्षु) बनाओ। क्यों मुझे बिना याचना किये तुमने उपसम्पन्न वनाया?" भगवान्से यह बात कही। (भगवान्ने यह कहा)- "भिक्षुओ! बिना याचना किये उपसम्पन्न नहीं बनाना चाहिये। जो उपसम्पन्न करे उसे दुक्क ट का दोष हो। भिक्षुओ! याचना करनेपर उपसम्पन्न करनेकी अनुमति देता हूँ। 19 २-उ प स म्प दा या च ना--"और भिक्षुओ! इस प्रकार या च ना करनी चाहिये- वह उ प स म्प दा पेक्षी (=भिक्षु होनेकी इच्छावाला) संघके पास जाकर (दाहिने कंधेको खोल) एक कंधेपर उत्त रा सं घ (=उपरना)को करके भिक्षुओंके चरणोंमें वंदनाकर, उकळू वैठ, हाथ जोळकर ऐसा कहे--'भन्ते ! संघसे उ प स म्प दा (पाने) की याचना करता हूँ; भन्ते ! संघ दया करके मेरा उद्धार करे।' दूसरी वार भी० । तीसरी वार भी 'भन्ते ! संघसे उ प स म्प दा (पाने) की याचना करता हूँ; भन्ते ! संघ दया करके मेरा उद्धार करे ।' १“(तव भिक्षुओ! ) योग्य, समर्थ भिक्षु संघको ज्ञापित करे- क. ज्ञप्ति-(१) भन्ते ! संघ मेरी सुने--अमुक नामवाले (भिक्षुको) उपाध्याय बना, अमुक नामवाले आयुष्मान्का (शिप्य), अमुक नामवाला यह (पुरुप) उ प स म्प दा चाहता है । यदि संघ उचित समझे तो संघ अमुक नामकको, अमुक नामके उपाध्यायके उपाध्यायत्त्वमें उपसम्पदा करे। यह ज्ञ प्ति (=सूचना है।) ख. अनु श्रावण- - (१) भन्ते ! संघ मेरी सुने-अमुक नामवाला, यह अमुक नामवाले आयुप्मान्का उपसम्पदा चाहनेवाला (शिप्य) है। संघ अमुक नामवालेको अमुक नामवाले (भिक्षु) के उपाध्यायत्त्वमें उपसम्पन्न करता है। जिस आयुष्मान्को अमुक नामवालेकी उपसम्पदा, अमुक नामवाले (भिक्षु) के उपाध्यायत्त्वमें स्वीकार है, वह चुप रहे, जिसको स्वीकार न हो, वह वोले। '(२) “दूसरी वार भी इसी बातको वोलता हूँ--पूज्य संघ मेरी सुने । '(३) तीसरी बार भी इसी वातको बोलता हूँ-पूज्य संघ मेरी सुने । ग. धा र णा-“संघको स्वीकार है, इसीलिये चुप है-ऐसा समझता हूँ।" (६) भिक्षु-पनके चार निश्रय उस समय रा ज गृह में उत्तम भोजोंका सिलसिला चल रहा था। तब एक ब्राह्मणके मनमें ऐसा हुआ-'यह शा क्य - पुत्री य (=वौद्ध) श्रम ण (=साधु), शील और आचारमें आरामसे . १ ३ 'भिक्षु-पन चाहनेवाला अमुकके स्थानपर उपसम्दापेक्षीका नाम लिया जाता है, कहीं-कहीं एक काल्पनिक नाम “नाग" भी लिया जाता है।