उपसम्पदा १७२।८ ] [ १०९ उसे दुक्क ट का दोष हो। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, दस या दससे अधिक वर्षवाले (भिक्षु) द्वारा उपसंपदा करनेकी।"27 उस समय भिक्षु अचतुर और अजान होते हुए भी 'हम दस वर्षके हैं" ऐसा सोच (दूसरेकी) उपसंपदा कराते थे, और शिष्य पंडित (होशियार) देखे जाते थे तथा उपाध्याय अबूझ; उपाध्याय विद्या-रहित (=अल्प-श्रुत) देखे जाते थे और शिष्य विद्वान् (=बहुश्रुत); उपाध्याय प्रज्ञारहित देखे जाते थे और शिष्य प्रज्ञावान् । (तव) एक पहले अन्य साधु-संप्रदायमें रहा (शिष्य) उपाध्यायके धर्म-संबंधी बात कहनेपर उपाध्यायके साथ विवाद करके उसी संप्रदाय (=तीर्थायतन) में चला गया । तव जो वह भिक्षु निर्लोभी, संतुष्ट ० दुखी होते थे--कैसे अचतुर और अजान होते हुए भी 'हम दस वर्षके हैं' ऐसा सोच (दूसरेकी) उपसंपदा कराते हैं; ० उसी संप्रदायमें चले जाते हैं ! !" तव उन भिक्षुओंने भगवान्से यह बात कही। (भगवान्ने. कहा). "सचमुच भिक्षुओ! अचतुर और अजान होते हुए भी, 'हम वर्षके हैं' ऐसा सोच, (दूसरे- की) उपसंपदा कराते हैं; ० उसी संप्रदायमें चले जाते हैं ?" "सचमुच भगवान् !' बुद्ध भगवान्ने निंदा- "भिक्षुओ! कैसे वह नालायक अचतुर और अजान होते हुए भी 'हम दस वर्पके हैं' ऐसा सोच (दूसरेकी) उपसंपदा कराते है; • उसी संप्रदायमें चले जाते हैं ? भिक्षुओ ! न यह अप्रसन्नों ।" निंदा करके भगवान्ने धर्म-संबंधी कथा कह भिक्षुओंको संबोधित किया-- "भिक्षुओ ! अचतुर, अजान (पुरुष दूसरेकी) उपसंपदा न करे। जो उपसंपदा करे उसे दुक्कट- का दोष हो। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, चतुर और जानकार दस या दससे अधिक वर्षवाले भिक्षुको उपसंपदा करने की।"24 (८) अन्तेवासोका कर्तव्य उस समय शिप्य उपाध्यायके (भिक्षु-आश्रमसे) चले जानेपर, विचार-परिवर्तन करलेनेपर या मर जानेपर, या दूसरे पक्षमें चले जानेपर भी विना आचार्यके ही उपदेश अनुशासन न किये जानेसे दिना ठीकसे (चीवर) पहने, विना ठीकसे ढंके वेशहूरीके साथ भिक्षाके लिये चले जाते थे, खाते हुए मनुप्योंके भोजनके ऊपर, खाद्यके ऊपर....पेयके ऊपर, जूठे पात्रको बढ़ा देते थे । स्वयं दाल भी भात भी मांगते थे, खाते थे। भोजनपर बैठे हल्ला मचाते रहते थे। लोग हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे- क्यों शाक्यपुत्रीय श्रमण विना ठीकसे पहने ० हल्ला मचाते रहते हैं, जैसे कि ब्राह्मण, ब्राह्मण-भोजनमें ? भिक्षुओंने लोगोंका हैरान होना, धिक्कारना और दुखी होना सुना। तब जो भिक्षु निर्लोभी, संतुष्ट, लज्जाशील, संकोचशील, सीखकी चाह वाले थे, वह हैरान हुए, धिक्कारने लगे, दुखी हुए ० ........ तव उन भिक्षुओंने भगवान्से इस वातको कहा।....। भगवान्ने धिक्कारा...... "भिक्षुओ ! उन नालायकोंका यह करना अनुचित है ० अकरणीय है ० भिक्षुओ ! कैसे वह नालायक विना ठीक पहने ० हल्ला मचाते रहते हैं, जैसे कि ब्राह्मण, ब्राह्मण-भोजनमें ? भिक्षुओ ! (उनका) यह (आचरण) अप्रसन्नोंको प्रसन्न करनेके लिये नहीं है ० ।" तब भगवान्ने उन भिक्षुओंको अनेक प्रकारले धिक्कारकर.....संबोधित किया- "भिक्षुओ ! मैं आचार्य (करने) की अनुमति देता हूँ। 25 आचार्यको शिप्यमें पुत्र-बुद्धि रखनी चाहिये, और शिप्यको आचार्यमें पिता-बुद्धि। आचार्य ग्रहण करनेका यह प्रकार है-उपर ने को एक कंधेपर करवा चरणकी वंदना ।
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