पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१७८

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उपसम्पदा 1 १९४।६ ] -(भिक्षु लोग) वहीं संघके बीचमें अनु शा स न करते थे। उपसंपदा चाहनेवाले (फिर) उसी तरह चुप रह जाते थे, मूक हो जाते थे, उत्तर न दे सकते थे। भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, एक ओर ले जाकर विघ्नकारक बातोंके अनु शा स न करनेकी; और संघके बीचमें पूछनेकी । भिक्षुओ! इस प्रकार अनुशासन करना चाहिये--पहले उपाध्याय ग्रहण कराना चाहिये । उपाध्याय ग्रहण करा पात्र-चीवरको वतलाना चाहिये--यह तेरा पात्र है, यह संघा टी, यह उत्त रा सं घ, यह अन्त र वा स क । जा उस स्थानमें खड़ा हो।" 179 ३-(उस समय) मूर्ख, अजान, अनुशासन करते थे। ठीकसे अनुशासन न होने के कारण उप- संपदा चाहनेवाले चुप रह जाते, मूक हो जाते, उत्तर न दे सकते थे। भगवान्से यह बात कही "भिक्षुओ ! मूर्ख, अजान अनुशासन न करें । जो अनुशासन करें तो. दुक्कटका दोप हो। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ चतुर समर्थ भिक्षुको अनुशासन करनेकी।"180 (ख) अनु शा स क का चु ना व--उस समय सम्मतिके बिना ही अनुशासन करते थे। भग- वान्ले यह बात कही।--भिक्षुओ! सम्मतिके बिना अनुगासन नहीं करना चाहिये। जो अनुशासन करे उसे दुक्कटका दोष हो। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ सम्मति प्राप्तको अनुशासन करनेकी। 181 "और भिक्षुओ! इस प्रकार सम्मंत्रण करना चाहिये-~अपने ही अपने लिये सम्मंत्रण करना चाहिये या दूसरे को दूसरेके लिये सम्मंत्रण करना चाहिये। कैसे अपने ही अपने लिये सम्मंत्रण करना चाहिये ?--चतुर, समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे- भन्ते ! संघ मेरी (वात) सुने, यह अमुक नामवाला अमक नामवाले आयुष्मान्का उपसंपदा चाहनेवाला (शिप्य) है। यदि संघ उचित समझे तो मैं अमुक नामवाले (इस पुरुप) को अनुशासन करूँ।--इस प्रकार अपनेही अपने लिये सम्मंत्रण करना चाहिये । "कैसे दूसरेके लिये सम्मंत्रण करना चाहिये ?--चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे- क. जप्ति-भन्ते ! संघ मेरी (बात) सुने । यह इस नामवाला इस नामवाले आयुष्मान्का उपसंपदा चाहनेवाला (गिप्य) है। यदि संघ उचित समझे तो इस नामवाला (भिक्षु) इस नामवाले (उपसंपदा चाहनेवाले) को अनुशासन करे।--इस प्रकार दूसरेको दूसरेके लिये सम्मंत्रणा करनी चाहिये। तव उस सम्मति प्राप्त भिक्षुको उपसंपदा चाहनेवालेके पास जाकर ऐसा कहना चाहिये- ख. अनु गा स न--"अमुक नामवाले ! सुनते हो? यह तुम्हारा सत्यका काल ( भूतका काल) है। जो जानता है संबके बीच पूछनेपर है होनेपर "है" कहना चाहिये; 'नहीं होनेपर नहीं कहना चाहिये। चुप मन हो जाना, मूक मत हो जाना, (संघमें) इस प्रकार तुझमे पूछेगे --क्या तुझे ऐसी बीमारी है (जने कि.) कोढ़, गंड, किलास, गोथ, मृगी? क्या तू मनुष्य है; पुरुप है; स्वतंत्र है; उऋण है; राज- मंनिय तो नहीं है ; तुझे माता-पिताने (भिक्षु बनानेकी) अनुमति दी है; तू पूरे वीस वर्षका है; तेरे पास पात्र-चीदर (पूर्ण मंग्यामें) हैं ? देग क्या नाम है ? तेरे उपाध्यायका क्या नाम है ?" (उन समय अनुशासक और उपसंपदा चाहनेवाले दोनों) एक माथ (नंघमें) आते थे। (भग- वान्गे यह बात कही)- "भिक्षुओ ! एक. माथ नहीं आना चाहिये।" 182 ग. उपसंपदामें जाप्ति, अनावण और धारणा- अनामक पहले आकर संघको भूचित करे- भन्ले ! नंप मेरी (वात) सुने ! यह इम नामका इन नामवाले आयुप्मान्का उपसंपदा चाहने- पला मिप्य है । मैने उनको अनुमानन किया है। यदि मंघ उचित समझे तो इन नामवाला (उपसंपदा चाहनेवाला) आदे। 'आओ! कहना चाहिये। (फिर) एक कंधेपर नगनंघको करवाकर निदान चारणोंमें पंदना कन्दा, उबल बैटवा, हाथ जुळवा, उपपदावे निये याचना कदानी चाहिये । ? ! !