पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१८०

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1 1 १९४६ ] उपसम्पदा [ १३३ २-(भिक्षु लोग) वहीं संघके वीचमें अनु शा स न करते थे। उपसंपदा चाहनेवाले (फिर) उसी तरह चुप रह जाते थे, मूक हो जाते थे, उत्तर न दे सकते थे। भगवान्से यह बात कही।-- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, एक ओर ले जाकर विघ्नकारक बातोंके अनु शा स न करनेकी; और संघके बीचमें पूछनेकी । भिक्षुओ! इस प्रकार अनुशासन करना चाहिये-पहले उपाध्याय ग्रहण कराना चाहिये । उपाध्याय ग्रहण करा पात्र-चीवरको वतलाना चाहिये--यह तेरा पात्र है, यह सं घाटी, यह उत्त रा संघ, यह अन्त र वा स क । जा उस स्थानमें खड़ा हो।" 179 -(उस समय) मूर्ख, अजान, अनुगासन करते थे। ठीकसे अनुशासन न होनेके कारण उप- संपदा चाहनेवाले चुप रह जाते, मूक हो जाते, उत्तर न दे सकते थे। भगवान्से यह बात कही।-- "भिक्षुओ ! मूर्ख, अजान अनुशासन न करें। जो अनुशासन करें तो. दुक्कटका दोप हो। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ चतुर समर्थ भिक्षुको अनुशासन करनेकी।"180 (ख) अनु शा स क का चुना व--उस समय सम्मतिके बिना ही अनुशासन करते थे। भग- वान्से यह बात कही। भिक्षुलो ! सम्मतिके बिना अनुगासन नहीं करना चाहिये। जो अनुशासन करे उसे दुक्कटका दोष हो। भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ सम्मति प्राप्तको अनुशासन करनेकी। 181 "और भिक्षुओ ! इस प्रकार सम्मंत्रण करना चाहिये--अपने ही अपने लिये सम्मंत्रण करना चाहिये या दूसरे को दूसरेके लिये सम्मंत्रण करना चाहिये। कैसे अपने ही अपने लिये सम्मंत्रण करना चाहिये ?--चतुर, समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे- भन्ते ! संघ मेरी (बात) सुने, यह अमुक नामवाला अमक नामवाले आयुष्मान्का उपसंपदा चाहनेवाला (शिष्य) है। यदि संघ उचित समझे तो मैं अमुक नामवाले (इस पुरुप) को अनुशासन करूँ। इस प्रकार अपनेही अपने लिये सम्मंत्रण करना चाहिये। "कैसे दूसरेके लिये सम्मंत्रण करना चाहिये ?--चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे- क. ज प्ति--भन्ते ! संघ मेरी (वात) सुने । यह इस नामवाला इस नामवाले आयुप्मान्का उपसंपदा चाहनेवाला (गिप्य) है। यदि संघ उचित समझे तो इस नामवाला (भिक्षु) इस नामवाले (उपसंपदा चाहनेवाले) को अनुशासन करे। -इस प्रकार दूसरेको दूसरेके लिये मम्मंत्रणा करनी चाहिये। तव उस सम्मति प्राप्त भिक्षुको उपसंपदा चाहनेवालेके पास जाकर ऐसा कहना चाहिये- ख. अनु शा म न--"अमुक नामवाले ! मुनते हो? यह तुम्हारा सत्यका काल (=भूतका काल) है। जो जानता है संघके बीच पूछनेपर है होनेपर “है" कहना चाहिये ; 'नहीं होनेपर नहीं कहना चाहिये। चुप मन हो जाना, मूवः मत हो जाना, (संघमें) इस प्रकार तुझमे पूडेंगे-क्या तुझे ऐसी बीमारी है (जैने वि.) कोढ़, गंड, किलास, गोथ, मृगी? क्या तू मनुष्य है; पुरुष है ; स्वतंत्र है; उऋण है; गज- निय तो नहीं है ; तृझे माता-पिताने (भिक्षु बनानेकी) अनुमति दी है : तु पूरे वीस वर्षका है; तेरे पास पात्र-बीदर (पूर्ण नंन्यामें) हैं ? तेरा क्या नाम है ? तेरे उपाध्यायका क्या नाम है ?" (उन समय अनुगामक और उपसंपदा चाहनेवाले दोनों) एक माय (मंघमें) आते थे। (भग- दान्ने यह बात कही) "भिक्षुओ ! एक माथ नहीं आना चाहिये। 182 म. उपनंपदामें जप्ति. अनधावण और धारणा-अनयामक पहले आकर मंघको भूचित करे-- मन्त ! नंप मेी (वात) मृने ! यह इन नामका इन नामबाले आयुष्मान्वा अनपटा चाहने- मला लिया है । मेने उनको अनुमानन किया है। यदि मंघ चित नमझे तो हम नामदाला (उपनंपदा गला आडे। 'आओ! कहना चाहिये। (फिर) र बंधेपर : नागपशे बन्दावर दमा कन्या. उस वैटा, हाथ कुवा. उपपदारे लिये पाना बरवानी चाहिये। -