२०२ ] ३-महावग्ग [ ५१३३ "तो क्या मानता है सो ण! जब तेरी वीणाके तार न बहुत जोरसे खिचे होते थे, न अत्यन्त ढीले होते थे, क्या उस समय तेरी वीणा स्वरवाली होती थी, काम लायक होती थी ?" "हाँ, भन्ते !" "इसी प्रकार सोण ! अत्यधिक उद्योग-परायणता औद्ध त्य को उत्पन्न करती है, अत्यन्त शिथिलता कौ सी द्य (=शारीरिक आलस्य) उत्पन्न करती है, इसलिये सो ण उद्योग करने में समता को ग्रहणकर, इन्द्रियोंके संबंधमें समता ग्रहण कर, और वहाँ कारणको ग्रहण कर।" "अच्छा भन्ते! "-(कह) आयुष्मान् सोणने भगवान्को उनर दिया । तब भगवान् आयुष्मान् सो ण को यह उपदेशकर जैसे बलवान् पुरुप० वैसेही सीतवनमें आयुष्मान् सो ण के सामने अन्तर्धान हो गृत्रकूटमें जा प्रकट हुए । तब आयुष्मान् सो ण ने दूसरे समय उद्योग करने में समताको ग्रहण किया, इन्द्रियोंके संबंध, समताको ग्रहण किया, और वहाँ कारणको ग्रहण किया; और आयुष्मान् सो ण एकान्तमें प्रमादरहित, उद्योगयुक्त, आत्मनिग्रही हो विहरते अविर में ही, जिसके लिये कुलपुत्र घरसे बेघर हो प्रव्रजित होते हैं उस अनुपम ब्रह्मचर्य के अन्त (=निर्वाण) को, इसी जन्ममें स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर, प्राप्त कर विहरने लगे। 'जन्म क्षय हो गया, ब्रह्मचर्य- वास पूरा होगया, करना था सो कर लिया और यहाँ कुछ करनेको नहीं'–यह जान लिया। और आयुष्मान् सोण अर्हतों (=जीवन्मुक्त) मेंसे एक हुए । (३) अर्हत्वका वर्णन तव अर्हत्व प्राप्त कर लेनेपर आयुष्मान् सो ण को यह हुआ-'क्यों न मैं भगवान्के पास (अपने) अर्हत्व-प्राप्तिको बखानूं ।' तब आयुष्मान् सो ण जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये। जाकर अभिवादनकर एक ओर वैठे । एक ओर बैठे आयुष्मान् सो ण ने भगवानसे यह कहा- "भन्ते ! जो क्षीण मलवाला (ब्रह्मचर्य) वासको पूरा कर चुका, करणीयको कर चुका, भार- मुक्त, निर्वाण-प्राप्त, भव-बंधन-क्षीण, ठीक तरहसे ज्ञानसे विमुक्त अर्हत् होता है वह छ बातोंके कारण मुक्त होता है-(१) निष्कामतासे मुक्त होता है, (२) प्रविवेक (=एकान्त चिन्तन) से मुक्त होता है, (३) द्रोह-रहित होनेसे मुक्त होता है, (४) (विषयोंके) ग्रहणके क्षयसे मुक्त होता है, (५) तृप्णाके क्षयके कारण मुक्त होता है, (६) मोहके नाशसे मुक्त होता है । भन्ते ! शायद यहाँ किसी आयुप्मान को ऐसा हो कि यह आयुष्मान् (अर्हत्) सिर्फ श्रद्धामात्रसे निष्कामताके कारण मुक्त हैं, किन्तु भन्ते ! ऐसा नहीं देखना चाहिये । भन्ते ! जिसका चित्त-मल क्षीण होगया है, जिसने ब्रह्मचर्य (-वास) पूरा कर लिया, जो करने लायक कामको कर चुका है, वह करने लायक सभी कामोंको न देखते हुए, किये हुए कामोंके संचयको न देखनेसे और रागके नाशसे वीतराग होनेसे निष्कामताके कारण मुक्त होता है; द्वेषके क्षय होनेसे, दोपरहति हो निष्कामताके कारण मुक्त होता है; मोहके क्षयसे मोहरहित हो निष्कामताके कारण मुक्त होता है। शायद भन्ते ! यहाँ किसी आयुष्मान्को ऐसा हो—'यह आयु. प्मान् लाभ-सत्कार और प्रशंसाकी इच्छासे एकान्त-सेवन करके मुक्त हुए; किन्तु भन्ते ! ऐसा नहीं देखना चाहिये। जिसका चित्त-मल क्षीण होगया है, जिसने ब्रह्मचर्य पूरा कर लिया है, जो करने लायक कामको कर चुका है, वह करने लायक सभी कामोंको न देखते हुए, किये हुए कामोंके संचयको न देखने से और रागके नाशसे वीतराग होनेसे वि वे क (=एकान्तचिन्तन) के कारण मुक्त होता है, द्वेषक क्षय होनेसे, दोप-रहित हो विवेकके कारण मुक्त होता है । मोहके क्षय होनेसे मोह-रहित हो विवेक के कारण मुक्त होता है। शायद भन्ते ! यहाँ किसी आयुष्मान्को ऐसा हो—'यह आयुप्मान् ! शील- व त प रा म र्श (=शील और व्रतके अभिमान) को सारके तौरपर मान, द्रोह-रहित (=पायदा- !
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