पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/२६३

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- २१२ ] ३-महावग्ग [ ५ य न ने तीन वर्प वीतनेपर बहुत कठिनाईसे जहाँ तहाँसे दशवर्ग (=दशभिक्षुओंका) भिक्षु-संघ एकत्रित कर, आयुष्मान् सोणको उपसंपन्न किया (=भिक्षु बनाया) । वर्षावास बस, एकान्तमें स्थित, विचार में डूबे आयुष्मान् सोणके चित्तमें ऐसा वितर्क उत्पन्न हुआ--'मैंने उन भगवान्को सामने से नहीं देखा, बल्कि मैंने सुनाही है, वह भगवान् ऐसे हैं, ऐसे हैं । यदि उपाध्याय मुझे आना दें, तो मैं भगवान् अर्हत् सम्यक् सम्बुद्धके दर्शनके लिये जाऊँ।' तव आयुष्मान् सोण सायंकाल ध्यानमे उठ, जहाँ आयु मान् महाकात्यायन थे. वहाँ जाकर...अभिवादनकर एक ओर बठे । एक ओर बैठ...आयुग्मान् महाकान्यायनसे कहा- "भंते ! एकांतमें विचारमें डूबे मेरे चिनमें एक ऐसा वितर्क उत्पन्न हुआ है-यदि उपाध्याय मुझे आज्ञा दें, तो में भगवान्०के दर्शनके लिये जाऊँ।" “साधु ! साधु ! सोण ! जाओ सोण० भगवान्के चरणों में बन्दना करना - 'भन्ने ! मेरे उपाध्याय भगवान्के चरणोंमें सिरसे वन्दना करते हैं । और यह भी कहना—'भन्ते अ व न्ति- द क्षि णा पथ में बहुत कम भिक्षु हैं । तीन वर्ष व्यतीत कर बळी मुश्किलसे जहाँ नहाँले दशवर्ग भिक्षुसंघ एकत्रितकर मुझे उपसंपदा मिली । अच्छा हो भगवान् अवन्ति-दक्षिणा-पथमें (१) अल्पतर गण (=कम कोरम् की जमायत) से उपसंपदाकी अनुज्ञा दें। अवन्ति-दक्षिणा पथमें भन्ते ! भूमि कालो ( कण्हुत्तरा) कड़ी, गोखरू (=गोकंटकों) से भरी है। अच्छा हो भगवान् अवन्ति-दक्षिणा- पथमें (२) (भिक्षु) गणको गण-वाले उपानह (: पनहीं) की अनुज्ञा दें । अवन्ति-दक्षिणपथमें भन्ते ! मनुष्य स्नानके प्रेमी, उदकसे शुद्धि मानने वाले हैं; अच्छा हो भन्ते ! अवन्ति-दक्षिणा-पथमें (३) नित्य-स्नानकी अनुज्ञा दें । अवन्ति-दक्षिणापथमें भन्ते ! चर्ममय आन्तरण (= बिछौने) होते हैं; जैसे मेष-चर्म, अज-चर्म, मृग-चर्म । ० (४) चर्ममय आस्तरणकी अनुज्ञा दें । भन्ते ! इस समय सीमासे वाहर गये भिक्षुओंको (मनुष्य) चीवर देते हैं—'यह चीवर अमुक नामकको दो।' वह आकर कहते हैं-'आवुस ! इस नामवाले मनुष्यने तुझे चीवर दिया है।' वह (विधि-निपेव) सन्देहमें पळ (सेवन नहीं करते, फिर कहीं उन्हें) निस्सर्गीय ( = छोळनेका प्रायश्चित ) न होजाय । अच्छा हो भगवान् र्याय कर दें।" "अच्छा भन्ते !" कह. सो ण कु टि क ण्ण. वादनकर प्रदक्षिणाकर जहाँ श्रा व स्ती थी वहाँको चले । क्रमशः विचरते जहाँ श्रावस्ती में अनाथ-पिडिक था, जहाँ भगवान् थे, वहाँ पहुँचे । पहुँचकर भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठ गये । तब भगवान्ने आयुष्मान् आनन्दसे कहा- "आनन्द ! इस नवागत भिक्षुको वास दो।" तव आयुष्मान् आनन्दको हुआ- "भगवान् जिसके लिये कहते हैं--'आनन्द ! इस नवागत भिक्षुको वास दो।' उसे भगवान् एक ही विहारमें साथ रखना चाहते हैं । यह सोच जिस विहार में भगवान् रहते थे, उसीमें आयुष्मान् सोणका आसन लगवा दिया। भगवान्ने बहुत रात खुले स्थानमें बिताकर प्रवेश किया। तब रातको भिनसारमें उठकर भगवान्ने आयुष्मान् सोणको कहा- "भिक्षु ! धर्म का पाठ कर सकते हो।" "हाँ भन्ते !” (कह) आयमान् सोणने सभी सोलह अट्ट क व ग्गि वकों को स्वर-सहित (५) चीवर आयुप्मान् महाकात्यायनको अभि- "सुत्तनिपात पारायणवण ५ ।