पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३२०

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1 ८९१११ ] जीवक-चरित [ २६७ "भणे जीता है ?" "देव जीता है।" "तो भणे ! इस बच्चेको ले जाकर, हमारे अन्तःपुरमें दासियोंको पोसनेके लिये दे आओ।" "अच्छा देव !". ..उस बच्चेको अभय-राजकुमारके अन्तःपुरमें दासियोंको पोसनेके लिये दे आये । 'जीता है (जीविति), करके उसका नाम भी जी व क रक्खा । कुमारने पोसा था, इसलिये कौ मा र - भृत्य नाम हुआ। जीवक कौमार-भृत्य अचिरहीमें विज्ञ हो गया। तव जीवक कौमार-भृत्य जहाँ अभय-राजकुमार था, वहाँ गया; जाकर अभय-राजकुमारसे वोला- "देव ! मेरी माता कौन है, मेरा पिता कौन है ?" "भणे जीवक ! मैं तेरी माँको नहीं जानता, और मैं तेरा पितां हूँ, मैंने तुझे पोसा है।" तव जीवक कौमार-भृत्यको यह हुआ- "राजकुल (राजदर्वार) मानी होता है, विना शिल्पके जीविका करना मुश्किल है। क्यों न मैं शिल्प सीखू ।” उस समय तक्षशिला में (एक) दिशा-प्रमुख (=दिगंत-प्रसिद्ध) वैद्य रहता था। तब जीवक अभय राजकुमारसे बिना पूछे, जिधर तक्ष-शिला' थी, उधर चला। क्रमशः जहाँ तक्ष-शिला थी, जहाँ वह वैद्य था, वहाँ गया। जाकर उस वैद्यसे बोला- "आचार्य ! में गिल्प सीखना चाहता हूँ।" "तो भणे जीवक! सीखो।" जीवक कीमार-भृत्य बहुत पढ़ता था, जल्दी धारण कर लेता था, अच्छी तरह समझता था, पढ़ा हुआ इसको भूलता न था। सात वर्ष बीतनेपर जीवक०को यह हुआ—'बहुत पढ़ता हूँ, पढ़ते हुए सात वर्ष हो गये, लेकिन इस शिल्पका अन्त नहीं मालूम होता; कव इस शिल्पका अन्त जान पड़ेगा?' तब जीवक० जहाँ वह वैद्य था, वहाँ गया, जाकर उस वैद्यसे वोला- "आचार्य ! मैं वहुत पढ़ता हूँ० । कव इस शिल्पका अन्त जान पड़ेगा?" "तो भणे जीवक! खनती (=खनित्र) लेकर तक्ष शि ला के योजन-योजन चारों ओर घूमकर जो अ-भैपज्य (=दवाके अयोग्य) देखो उसे ले आओ।" "अच्छा आचार्य !". . .जीवक.. ने. . .कुछभी अ-भैपज्य न देखा,...(और) आकर उस वद्यको कहा- "आचार्य ! तक्ष-शिलाके योजन-योजन चारों ओर मैं धूम आया, (किन्तु) मैंने कुछ भी अ- भैपज्य नहीं देखा।" "सीख चुके, भणे जीवक ! यह तुम्हारी जीविकाके लिये पर्याप्त है।" (कह) उसने जीवक वोमार-भृत्यको थोळा पाथेय दिया। तव जीवक उस स्वल्प-पाथेय (= राहखर्च) को ले, जिधर राज- गृह था, उधर चला। जीवक०का वह स्वल्प पाथेय रास्तेमें मा के न (अयोध्या) में खतम होगया। नव जीवकः कामार-भृत्वको यह हुआ-'अन्न-पान-रहित जंगली रास्ते हैं, बिना पाथेयके जाना सुकर नहीं है ; क्यों न में पाथेय दुई।" उन नमय सावंतमें प्रेष्टि (नगर-लेट) की भार्याको सात वर्षने गिर-दर्द था। बहुतमे वळे दिगंत-विधात वैद्य आकर नहीं अ-गोग कर सके, (और) बहुत हिप्य (=अगी) सुवर्ण लेकर ले गये। कर जीवयाने नावेत प्रवेगनर आदमियोंने पृटा- "मणे! कोई गेली है, जिननी मै चिकित्सा कहें?" दर्तमान माहीती देरी, जि० रावलपिती । होटेरे लिये माबोधन ।