२७० ] ३-महावग्ग [८११ "यदि में गृहपति ! तुजे निरोग कर दूं, तो मुझे क्या दोगे?" "आचार्य ! सब धन तुम्हारा हो, और मैं तुम्हारा दास।" "क्यों गृहपति ! तुम एक करवटने सात माल लेटे रह सकते हो?" "आचार्य ! मैं एक करवटने सातमाम लेटा रह सकता हूँ।" "क्या गृहपति ! तुम दुगरी करवटने सात मान लेटे रह सकते हो?" "आचार्य !...सकता हूं।" "क्या...उतान सात माग लेटे रह सकते हो?" "आचार्य ! .. गाता हूँ।" तब जीवकने श्रेष्ठी गृहपतिको नासागर लिटाकर, चारपाने बांधकर, शिरके चमळेको फाळकर खोपळी खोल, दो जन्तु निकाल लोगोंको दिखलाये-- "देखो यह दो जन्तु हैं-एक बला है, एक छोटा । जो वह आचार्य यह कहते थे--पांचवें दिन श्रेष्ठी गृहपति मरेगा, उन्होंने इस बळे जन्तुको देखा था, पांच दिनमें यह श्रेष्ठी गृहपतिकी गुद्दी चाट लेता, गुद्दीके चाट लेनेपर श्रेष्ठी गृहपति मर जाता। उन आनाोंने ठीक देखा था। जो वह आचार्य यह कहते थे-सातवें दिन श्रेष्ठी गृहपति मरेगा, उन्होंने इस छोटे जन्तुको देखा था।" खोपळी ( सिव्वनी) जोळकर, शिरके चमळेको सीकर, लेप कर दिया । तब श्रेष्ठी गृहपतिने सप्ताह बीतनेपर जीवक...से कहा- "आचार्य ! मैं, एक करवटसे सात मास नहीं लेट सकता।" "गृहपति ! तुमने मुझे क्यों कहा था-० सकता हूँ।" "आचार्य ! यदि मैंने कहा था, तो मर भले ही जाऊँ, किंतु मैं एक करवटसे सात मास लेटा नहीं रह सकता।" "तो गृहपति ! दूसरी करवट सात मास लेटो।" तब श्रेष्ठी गृहपतिने सप्ताह बीतनेपर जीवक...से कहा- "आचार्य! मैं दूसरी करवटसे सातमास नहीं लेट सकता।"010 "तो गृहपति! उतान सात मास लेटो।" तब श्रेष्ठी गृहपतिने सप्ताह बीतने पर... .कहा- "आचार्य ! मैं उतान सात मास नहीं लेट सकता।" "गृहपति! तुमने मुझे क्यों कहा था-'सकता हूँ।" "आचार्य ! यदि मैंने कहा था, तो मर भले ही जाऊँ, किंतु मैं उतान सात मास लेटा नहीं रह सकता।" "गृहपति ! यदि मैंने यह न कहा होता, तो इतना भी तू न लेटता। मैं तो.. .जानता था, तीन सप्ताहोंमें श्रेष्ठी गृहपति निरोग हो जायेगा। उठो गृहपति ! निरोग हो गये। जानते हो, मुझे क्या देना है ?' "आचार्य ! सव धन तुम्हारा और मैं तुम्हारा दास ।" "वस गृहपति ! सब धन मेरा मत हो, और न तुम मेरे दास । राजाको सौहजार देदो और सौहज़ार मुझे।" तव गृहपतिने निरोग हो सौ हजार राजाको दिया, और सौ हज़ार जीवक कौमार-भृत्यको। उस समय व ना र स के श्रेष्ठी ( (=नगर-सेठ) के पुत्रको मक्खचिका (=शिरके वल घुमरी काटना) खेलते अँतळीमें गाँठ पळ जानेका रोग (होगया) था; जिससे पी हुई खिचळी (भ्यागु- यवागू) भी अच्छी तरह नहीं पचती थी, खाया भात भी अच्छी तरह न पचता था। पेशाब, पाखाना भी ठीकसे न होता था। वह उससे कृश, रुक्ष दुर्वर्ण पीला ठठरी (धमनि-सन्थत-गत्त) भर रह गया -
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