पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३४४

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(1913 ] रोगीकी सेवा [ २९१ "ह तेरे पास भिक्षु ! कोई परिचारक ?" "नहीं है भगवान्।" "क्यों भिक्षु तेरी परिचर्या नहीं करते?" "भन्ते ! मैं भिक्षुओंका कोई काम करनेवाला न था, इसलिये भिक्षु मेरी परिचर्या नहीं करते।" तब भगवान्ने आयुष्मान् आनन्दको संबोधित किया- "जा आनंद ! पानी ला, इस भिक्षुको नहलायेंगे।" "अच्छा भन्ते !"- (कह) आयुष्मान् आनंद भगवान्को उत्तर दे पानी लाये। भगवान्ने पानी डाला। आयुष्मान् आनंदने धोया। भगवान्ने गिरसे पकळा तथा आयुष्मान् आनंदने पैरसे, और उठाकर चारपाई पर लिटा दिया। तब भगवान्ने उसी संबंधमें उसी प्रकरणमें भिक्षु संघको एकत्रितकर पूछा- "भिक्षुओ! क्या अमुक विहारमें रोगी भिक्षु है ?" "है, भगवान् ।” "भिक्षुओ ! उस भिक्षुको क्या रोग है ?" "भन्ते ! उस आयुष्मान्को पेटके विकारका रोग है।" "है कोई, भिक्षुओ! उस भिक्षुका परिचारक ?" "नहीं है भगवान् ।” "वयों भिक्षु उसकी सेवा नहीं करते ?" "भन्ते ! बह भिक्षु भिक्षुओंका कोई काम करनेवाला नहीं था, इसलिये भिक्षु उसकी सेवा नहीं करते।" "भिक्षुओ! न तुम्हारे माता है न पिता; जो कि तुम्हारी सेवा करेंगे। यदि तुम एक दूसरेकी सेवा नहीं करोगे तो कौन सेवा करेगा? "भिक्षुओ ! जो मेरी सेवा करना चाहे वह रोगीकी सेवा करे। यदि उपाध्याय है तो उपाध्यायको यावत् जीवन सेवा करनी चाहिये जब तक कि रोगी रोग-मुक्त न हो जाय । यदि आचार्य है ० । यदि साथ विहार करनेवाला है। यदि शिप्य है । यदि एक-उपाध्याय-का गिप्य है । यदि एक-आचार्य-का शिष्य है तो यावत्-जीवन सेवा करनी चाहिये जब तक कि रोगी रोग-मुक्त न हो जाय। यदि नहीं है नो उपाध्याय, आचार्य, नाथ-विहरनेवाला ( चेला), गिप्य, एक-उपाध्याय-का-गिप्य, एक-आचार्य- का-शिष्य या संघको नेवा करनी चाहिये। यदि न नेवा करे तो दृश्कटका दोप हो।" 68 (२) कैसे रोगीको सेवा दुष्कर है " भियो! पांच वातोले चुक्त रोगीकी नेवा करनी मुश्किल होती है-(१) (माथियोंके) समकालना नग्नेदाला होता है. (२) अनुकूलकी मात्रा नहीं जानता, (३) औषध सेवन नहीं करता, त्रि मारनेवाले रोगि-परिचादने टीव टीक रोपनी बात नहीं प्रकट करता-बढ़ते (नोग) को कावट.. हरदोव्हा है, (२) दृवनय, नीड वर कटु, प्रतिकल, अप्रिय, प्राणहर, दिपीका हकमा नहीं होता। निक्षुलो ! पांच बातोंने युक्त होगीकी नेवा करनी मुस्किल .