पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३५४

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करता था। २६१११ ] निर्दोपको उत्क्षिप्त करना अपराध है [ २९९ सो तू आवुस ! अब न नहानेका प्रबन्ध करता है, न यवागू खाद्य भोजनके लिये उत्सुकता करता है, सो आवुस ! तूने अपराध किया । क्या तू उस अपराधको देखता है ?" "आवुसो ! मैंने दोष नहीं किया जिसको कि में देवू ।" तब उन नवागन्तुक भिक्षुओंने अपराध (=आपत्ति) न देखने के लिये का श्यप गोत्र भिक्षुका उसे प ण (=दंड) किया । तब का श्य प गोत्र भिक्षुको यह हुआ-'मैं नहीं जानता कि यह आ पत्ति है कि अन् आ पत्ति है। आ पत्ति (अपराध) मैने की है, या नहीं की है। मैं उ क्षिप्त हूँ या उत्क्षिप्त नहीं हूँ। (मेरा उत्क्षेपण) धर्मानुसार है या धर्मविद्ध। को प्य (=अयुक्त) ई या अ को प्य । कारणले है या अकारणले । क्यों न मैं चम्या जाकर भगवानसे यह पूछु ।' नव काश्यपगोत्र भिक्षु आसन-वाचन सँभाल, पात्र-त्रीवर ले चम्पाकी ओर चल दिया। क्रमशः चारिका करते जहाँ चम्पा थी और जहाँ भगवान् थे वहाँ पहुँचा । पहुँचकर भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठा। बुद्ध भगवानोंका यह नियम है बिना तकलीफ़के रास्तेमें तो आया ? भिक्षु ! कहाँसे तू आ 1 "ठीक है भगवान् ! यापनीय है भगवान् ! बिना नकलीफ़के भन्ते ! मैं रास्तेमें आया। भन्ते ! या गि देग वा स भ गा म है वहाँका में आश्रमनिवानी हूँ। में इसके विषय में बराबर यत्नगील रहता था जिगमें कि न आये अच्छे भिक्षु आये और विपुलताको प्राप्त हो० नयों न मैं नम्पा जाकर भग- बान्ये यह पृर्छ । वहाभ भगवान् में आ रहा हूँ। " शिओ ! यह अन् आपनि है, आपत्ति नहीं है । नु आपनि-रहित है, आपत्ति सहित नहीं; तु अनक्षिप्त है, जन्क्षिप्त नही, नेरा उन्क्षेपण अधर्मने हुआ है, कोप्पन हुआ है, कारण बिना हुआ है, जा नि ! तू वही दा म भ गाम में निवासकार ।" "अच्छा भन्ते !" (कह) का व्य प निक्षु भगवान्को उत्तर दे आमनमे उठ भगवान्को अभि- वादनवार, प्रदक्षिणा कर चला गया। तब उन नवागन्तुक भिक्षुओंको पछतावा हुआ, अफ़मोग हुआ-- 'अलाय मनो, लाभ नहीं ! दुर्लाभ हुआ हमें, मुलान नहीं हुआ जो कि हमने निर्दोष गुद्ध भिक्षुको अपराधी जिना, कारण बिना उन्क्षेपण किया । आओ आनो ! हम चम्पा में चलकर भगवान्के पास अपनो (कास) क्षमा कराये।' !