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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३६२

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[ ३०७ ! ९९२७ ] अधर्मसे उत्क्षेपण कर्म संघ या बहुतसे (भिक्षु) या एक भिक्षु प्रेरित करता है-'आवुस ! तुझसे आपत्ति हुई है; क्या तू उस आपत्तिको देख रहा है।' वह ऐसा बोलता है-'आवुस ! मुझे आपत्ति (=दोप) नहीं है जिसे कि मैं देखू ।' संघ आपत्तिके न देखनेके कारण उसका उत्क्षेपण करता है (तो यह) अधर्म कर्म है। 20 "(२) भिक्षुओ ! एक भिक्षुको कोई आपत्ति प्रतिकारके करनेके लिये नहीं रहती; उसे संघ या वहुतसे भिक्षु या (एक) भिक्षु प्रेरित करता है-'आवुस ! तुझसे आपत्ति हुई है, तू उस आपत्तिका प्रतिकार कर ! ' वह ऐसा बोलता है--'आवुस ! मुझे आपत्ति नहीं है जिसका कि मैं प्रतिकार करूँ।' तव संघ आपत्तिका प्रतिकार न करनेके कारण उसका उत्क्षेपण करता है; तो यह अधर्म कर्म है । 2I "(३) भिक्षुओ! एक भिक्षुको बुरी धारणा नहीं होती । उसे संघ या बहुतसे भिक्षु या (एक) भिक्षु प्रेरित करता है-'आवुस ! तेरी धारणा बुरी है । उस बुरी धारणाको छोळ दे !' वह ऐसा कहता है-'आवुस ! मुझे बुरी धारणा नहीं है जिसको कि मैं छोळू ।' यदि संघ उसका, बुरी धारणाके न छोळनेके लिये उ त्क्षे प ण करता है तो यह अधर्म कर्म है। 22 "(४) भिक्षुओ! एक भिक्षुको देखने लायक आपत्ति नहीं होती, प्रतिकार करने लायक आपत्ति नहीं होती। उसको संघ, बहुतसे या एक भिक्षु प्रेरित करते हैं-'आवुस ! तुझसे आपत्ति हुई है। उस आ पत्ति को देखता है ? उस आपत्तिका प्रतिकार कर !'-वह ऐसा बोलता है—'आवुस ! मुझे आपत्ति नहीं है जिसको कि मैं देखू; मुझे आपत्ति नहीं है जिसका कि मैं प्रतिकार करूँ।' संघ उसका, न देखने या प्रतिकार न करनेके कारण यदि उ त्क्षे प ण करता है तो यह अधर्म कर्म है। 23 "(५) भिक्षुओ! एक भिक्षुको देखनेके लिये आपत्ति नहीं होती; और न छोळनेके लिये बुरी धारणा होती है। उसको संघ० प्रेरित करता है—“आवुस ! तुझसे आपत्ति हुई है । देखता है तू आपत्तिको?' तुझे बुरी धारणा है । छोळ ! उस वुरी धारणाको ।' वह ऐसा बोलता है—'आवुसो! मुझे आ पत्ति नहीं है जिसको देखू; मेरे पास बुरी धारणा नहीं है जिसे छोळू ।' तव संघ न देखने या न छोळनेके कारण उसका उत्क्षेपण करे तो यह अधर्म कर्म (=अन्याय, वेइंसाफ़ी) है। 24 "(६) भिक्षुओ ! एक भिक्षुको प्रतिकार न करने लायक आपत्ति होती है, न छोळने लायक बुरी धारणा होती है। उसे संघ० प्रेरित करता है-'आवुस ! तुझे आपत्ति है, उस आपत्तिका प्रतिकार कर । तुझे बुरी धारणा है उसको छोळ !' वह ऐसा बोलता है—'आवुस ! मुझे आपत्ति नहीं है जिसका कि प्रतिकार करूँ। मुझे बुरी धारणा नहीं है जिसको कि छोळू ।' तव संघ यदि आपत्ति का प्रतिकार न करने या बुरी धारणाके न छोळनेके कारण, उसका उत्क्षेपण करता है, तो यह अधर्म कर्म है। 25 “(७) भिक्षुओ! एक भिक्षुको देखनेके लिये आपत्ति नहीं होती न प्रतिकार करनेके लिये आपत्ति होती है; न छोळनेके लिये बुरी धारणा होती है। उसको संघ० प्रेरित करता है—'आवुस ! नुसने आपत्ति हुई है, देखता है उस आपत्तिको? उस आपत्तिका प्रतिकार कर ! तेरे पास बुरी धारणा है उन अपनी बुरी धारणाको छोळ !' वह ऐसा कहता है-'आवुसो ! मुझे आपत्ति नहीं जिसको कि देख , जिसका प्रतिकार करूं । मुझे बुरी धारणा नहीं जिसको कि छोळ् ।' संघ न देखने, न प्रतिकार करने, न डोळनेने लिये उसका उत्क्षेपण करता है तो यह अ धर्म कर्म है । 26 म. "(१) भिक्षुओ! यहाँ एक भिक्षुको देखने लायक आपत्ति होती है, उसको संघ या बहुतसे (भिक्षु) या एक (भिक्षु) प्रेरित करता है-'आवुस ! तुझे आपत्ति है । देखता है उस आपत्तिको?' का ऐना बोलता है-'हां आवुस ! देखता हूँ ।' उसका संघ आपत्ति न देखनेके लिये उत्क्षेपण करता है, (मह) अधर्म कर्म है । 27 "() निभुलो ! यहाँ एक भिक्षुको प्रतिकार करने लायक आपत्ति होती है । उसे नंघ० प्रेरित मरता है-'आदुन ! नुमने आपत्ति (अपराध) हुई है। उन आपत्तिका प्रतिकार कर ।' वह ऐसा