पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३६४

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९७३।२] धर्म कर्म [ ३०९ जिसका कि मैं प्रतिकार करूं। मुझे बुरी धारणा नहीं है जिसको कि मैं छोळू ।' संघ न देखने, प्रतिकार न करने, न छोळनेके लिये उसका उत्क्षेपण करे (यह) धर्म - कर्म है।" 40 १३-कुछ अधर्म और धर्म-कर्म (१) अधर्म कर्म १-तब आयुष्मान् उ पा लि जहाँ भगवान् थे वहाँ गये । जाकर भगवान्को अभिवादन कर एक ओर बैठे । एक ओर बैठे आयुष्मान् उपालि ने भगवान्से यह कहा-- "भन्ते ! समग्न संघके सामने करने लायक कर्मको जो बे-सामने करता है तो भन्ते ! क्या वह धर्म - कर्म है ? विन य - कर्म है ?" "उ पा लि! वह अधर्म कर्म है, अ-वि न य कर्म है।" २-"भन्ते ! समग्र संघसे पूछकर करने लायक कर्मको जो विना पूछे करे; प्रतिज्ञा करके करने लायक कर्मको विना प्रतिज्ञाके करे; स्मृति-विनय देने लायकको अ मू ढ़ वि न य दे; अमूढ़ विनयके लायकको त त्पा पी य सि क कर्म करे; त. त्पा पी य सि क कर्मके लायकका तर्ज नी य कर्म करे; तर्जनीय कम लायकका नि य स्स कर्म करे; नियस्स कर्म लायकका प्रव्राज नी य कर्म करे; प्रव्राजनीय कर्म लायकका प्रतिसारणीय कर्म करे; प्रतिसारणीय कर्म लायकका उत्क्षेपणीय कर्म करे; उत्क्षेपणीय कर्म लायकको परि वा स दे; परिवास देने लायकको मूलसे प्रतिकर्पण करे; मूलसे प्रतिकर्पण करने लायकको मा न त्व दे; मानत्व देने लायकका आह्वान करे; आह्वान लायकका उ प स म्पा द न करे; भन्ते ! वया यह धर्म - कर्म है। वि न य - कर्म है ?" "उपालि ! वह अधर्म कर्म है, अविनय कर्म है जो कि वह उ पा लि ! समग्र संघके सामने करने लायक कर्मको वेसामने करता है । उ पा लि! इस प्रकार अधर्म कर्म होता है, अ - वि न य - कर्म होता है, और इस प्रकार संघ सा ति सा र (=अतिकी धारणावाला) होता है । उ पा लि ! समग्न संघसे पूछकर करने लायक कर्मको जो विना पूछे करता है ० आह्वान् लायकका उपसम्पादन करता है । उपालि ! इस प्रकार अधर्म कर्म अ-विनय कर्म होता है; और इस प्रकार संघ सा ति सा र होता है।" (२) धर्म कर्म १--"भन्ते ! समग्र संघके सामने करने लायक कर्मको जो सामने करता है, भन्ते ! क्या वह ध मं - कर्म है, विनय-कर्म है ?" "उ पा लि! वह धर्म - कर्म है, वि न य - कर्म है।" २-"भन्ते ! ममत्र संघले पूछकर करने लायक कर्मको जो पूछकर करता है, प्रतिज्ञा करके करने लायवः कर्मको प्रतिज्ञा करके करता है; स्मृति-विनयके लायकको स्मृति - वि न य देता है; अमूढ़ - दिन य ०; त त्पा पी य मि क - कर्म०; तर्जनी य - कर्म०; नि य स्स कर्म०; प्र वा ज नीय क.म०; प्रति ना र णी य कर्म० ; उत्क्षे प णी य कर्म०; परि वाम ०; मूलमे प्रतिकर्पण०; मा न त्व०; आदान० : उपसम्पदाः लायकको उपसम्पादन करता है: भन्ने ! क्या यह धर्म - कर्म है, वि न य - ... "उपालि ! वह धर्म - कर्म है, विनय - कर्म है। उ पा लि ! ममग्र संघके मामने करने लायक कर्मको जो मानने करता है इन प्रकार उपालि ! धर्म - कर्म, विनय - कर्म होता है और इस प्रकार माप अनिमा रहित होता है। समाधि ! समय नंको पूछकर कन्ने लायक कर्मको जो पृटकर करता

प्रतिमा बन्ने लायक कर्मयोःस्मृति-विनयः; अमूद-विनयः; तत्यापीयमिक-कर्मः

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