पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

i "उपालि! यह धर्म-कर्म है, विनय-कर्म है। यदि उ पा लि समग्र संघ स्मृति-विनय लाया ० २उपसम्पदा लायकको उपसम्पदा दे, तो उपालि! यह धर्म-कर्म, विनय-गमं ३१० ] ३-महावग्ग [BGer's तर्जनीय कर्म० ; नियस्स कर्म० ; प्रजाजनीय कर्म० ; प्रतिसारणीय कर्म० ; उत्क्षेपणीय कर्म०; परिखामः: मूलसे-प्रतिकर्पण०; मानत्व०; आह्वान ०; उपसम्पदाके लायकको उपसम्पदा देता है; इस प्रकार उपालि! धर्म - कर्म, वि न य - कर्म होता है और इस प्रकार संघ अ ति सा र रहित होता है।" (३) अधर्म कर्म १--"भन्ते ! समग्र संघ स्मृति-विनयके लायकको यदि अ मूढ - वि न य दे, अमूढ़-विनय लायकको स्मृति-विनय दे तो भन्ते ! क्या यह धर्म - कर्म, वि न य - क मं है ?" "उपालि! वह अधर्म कर्म है, अ - वि न य क र्म है।" --"यदि भन्ते ! समग्र संघ अमूढ़ विनयके लायक का तत्पापीयसिक कर्म करे, और तपापीय- सिक कर्म लायकको अमूढ़-विनय दे; तत्पापीयसिक कर्म लायकका तर्जनीय कर्म करे; तर्जनीय कर्म लायकका तत्पापीयसिक कर्म करे; तर्जनीय कर्म लायकका नियस्स कर्म करे; नियस्स-कर्म लायकका तर्जनीय कर्म करे; नियस्स कर्म लायकका प्रब्राजनीय कर्म करे; प्रजाजनीय कर्म लायकका नियन्स कर्म करे; प्रजाजनीय कर्म लायकका प्रतिसारणीय कर्म करे; प्रतिसारणीय कर्म लायकका प्रब्राजनीय कर्म करे: प्रतिसारणीय कर्म लायकका उत्क्षेपणीय कर्म करे; उत्क्षेपणीय कर्म लायकका प्रतिसारणीय कर्म करे; उत्क्षेपणीय कर्म लायकको परिवास दे; परिवास लायकका उत्क्षेपणीय कर्म करे; परिवास लायकी मूलसे प्रतिकर्षण करे; मूलसे प्रतिकर्षण लायकको परिवास दे; मूलसे प्रतिकर्षण लायकको मानत्व देः मानत्व लायकका मूलसे प्रतिकर्षण करे; मानत्व लायकका आह्वान करे; आह्वान् लायकको मानत्व दे; आह्वान लायकको उपसम्पादन करे; उपसम्पदा लायकका आह्वान करे; भन्ते! क्या यह ध में - कर्म है, वि न य - कर्म है ?" "उ पा लि वह अ - धर्म - कर्म है, अ - वि न य - कर्म है। उ पा लि! यदि समग्र संघ, स्मृति- वि न य के लायकको अ मूढ़ - वि न य दे, अमूढ़-विनय लायकको स्मृति-विनय दे, तो उ पा लि यह अधर्म - क र्म, अ- वि न य - क र्म होता है; और इस प्रकार संघ अतिसार युक्त होता है। ०१ । आह्वान लायकको उपसम्पदा दे; उपसम्पदा लायकका आह्वान करे; उपालि यह अधर्म कर्म अ-विनय कर्म होता है और इस प्रकार संघ अतिसार-युक्त होता है।" (४) धर्म कर्म १-“भन्ते ! समग्र संघ यदि स्मृ ति - वि न य लायकको स्मृ ति - वि न य दे; अमू- वि न य लायकको अमढ़-विनय दे तो भन्ते ! क्या यह धर्म-कर्म है, वि न य - कर्म है ?" "उपालि ! यह धर्म-कर्म है, विनय-कर्म है।" २–“भन्ते ! यदि समग्र संघ अमूढ़ विनय लायकको अमूढ़ विनय दे, तत्पापीयनिक कर्म तर्जनीय कर्म० ; नियस्स कर्म०; प्रव्राजनीय कर्म०; प्रतिसारणीय कर्म० ; उत्क्षेपणीयकर्म०; मूलसे प्रतिकर्पण०; मानत्व०; आह्वान०; उ प स म्प दा लायकको उपसम्पदा दे, तो भन्ते! क्या गा. धर्म-कर्म है ! विनय-कर्म है ?" स्मृति-विनय दे; होता है और इस प्रकार संघ अतिसार रहित होता है।" १ . परिवाग; १ ऐसेही आगे भी उपालिके प्रश्नमें आये वाक्योंको दुहराना चाहिये । २ उपालिके प्रश्नमें आये वाक्योंको फिर यहाँ दुहराना चाहिये।