पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३७९

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१०-कौशम्बक-स्कंधक १--भिक्षु-संघ में कलह । २--कौन धर्मवादी और कौन अधर्मवादी ? ३--संघ-सामग्री ( =संघका मिलकर एक होजाना )। ४-योग्य विनयधरकी प्रशंसा । ६१-भिक्षु-संघमें कलह १-कौशाम्बी (१) कौशाम्बीमें भिक्षुओंमें झगळा १उस समय भगवान् को शा म्बी के घो पिता रा म में बिहार करते थे, (तव) किसी भिक्षुक्तो 'आ पत्ति' (=दोष) हुई थी। वह उस आपत्तिको आपत्ति समझता था; दूसरे भिक्षु उस आपत्तिको अनापत्ति समझते थे। (फिर) दूसरे समय वह (भी) उस आपत्तिको अनापत्ति समझने लगा; और दूसरे भिक्षु उस आपत्तिको आपत्ति समझने लगे। तब उन भिक्षुओंने उस भिक्षुसे कहा-"आवुम ! तुम जो आपत्ति किये हो, उस आपत्तिको देख रहे हो?" "आवुसो ! मुझे 'आपत्ति' ही नहीं ! किसको मैं देखू ?" तव उन भिक्षुओंने जमा हो, ... आपत्ति न देखनेके लिये, उस भिक्षुका 'उत्क्षेपण' किया । वह भिक्षु, वहु-श्रुत, आ ग म ज्ञ, धर्म-ध र, वि न य-धर; मा त्रि का-ध र, पं डि त व्यक्त, मेधावी, ल ज्जी, आस्थावान् सीखनेवाला था। उस भिक्षुने जानकर, संभ्रान्त भिक्षुओंके पास जाकर कहा-“हे आवुसो ! यह अनापत्ति आपत्ति नहीं। मैं आपत्ति-रहित हूँ, इसे मुझे (वह लोग) ३ , १ अट्ठकथामें है--"एक संघाराममें दो भिक्षु--एक वि न य-ध र (=विनयपिटक-पाठी), दूसरा सौत्रा न्ति क (=सूत्रपिटक-पाठी,) वास करते थे। उनमें सौत्रान्तिक एक दिन पाखाने में जा, शौचके बचे जलको वर्तनमें ही छोळ, चला आया। विनयधर पीछे पाखाने गया। वर्तनमें पानी देखकर उस भिक्षुसे पूछा--'आवुस ! तुमने इस जलको छोळा है ?' 'हाँ, आवुस !' 'तुम इसमें आपति (=दोष) नहीं समझते ?' । 'हाँ, नहीं समझता' । 'आवुस ! यहाँ आपत्ति होती है ।' 'यदि होती है, तो(प्रति-) दे श ना (=क्षमापन) करूँगा ।' 'यदि तुमने बिना जाने, भूलसे, किया, तो आपत्ति नहीं है' वह उस आपत्ति को अनापत्ति समझता था विनयधरने भी अपने अनुयायियोंसे कहा-यह सौत्रान्तिक 'आपत्ति' करके भी नहीं समझता" । वह उस (सौत्रान्तिक) के अनुयायियों को देखकर कहते--"तुम्हारा उपाध्याय आपत्ति करके भी आपत्ति' हुई नहीं जानता।" वह कहते-" विनयधर पहिले अनापत्तिकर, अव आपत्ति करता है, यह मिथ्या-वादी है।" उन्होंने कहा-"तुम्हारा उपाध्याय मिथ्या-दादी है" । इस प्रकार कलह बढ़ी।" २देखो चुल्ल १९६ (पृष्ठ ३६१) । आ ग म कहे जाते हैं। ४ अति-संक्षिप्त अभिधर्म मात्रिका है। सूत्र-पिटकके दीर्घ-निकाय आदि पांच निकाय ३२२ ]