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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३८१

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, ३२४ ] ३-महावग्ग [ १०४ (उत्क्षेपण किये गये भिक्ष )के पक्षवाले भिक्षु थे वहाँ गये । जाकर बिछे आसनपर बैठे। बैठकर भगवान्ने उत्क्षिप्त (भिक्षु )के पक्षवाले भिक्षुओंसे यह कहा- "भिक्षुओ! आपत्तिकरके-'हमने आपत्ति नहीं की, हम अन्-आपत्ति युक्त हैं (मोन आपत्तिका प्रतिकार न करना, मत चाहो । यदि भिक्षुओ! (किसी) भिक्षुने आपत्ति की हो और वह उस आपत्तिको अन्-आपत्ति (के तौरपर) देखताहो, और दूसरे भिक्षु उस आपत्तिको आपनि (के तौरपर) देखते हों । यदि वह भिक्षु उन भिक्षुओंके बारेमें ऐसा जानता है-'यह आयुष्मान बहुश्रुत ० सीख (चाहने ) वाले हैं, यह मेरे कारण, यह दूसरोंके कारण, छंद ( =स्वेच्छाचार), वेष. मोह, भय (के रास्ते, या) अगति (=वरे रास्ते )में नहीं जा सकते । यदि ये भिक्षु आपत्ति न देखने के लिये मेरा उत्क्षेपण करेंगे, मेरे साथ उपोसथ न करेंगे, मेरे बिना उपोसथ करेंगे तो इसके कारण मंत्रम झगळा ० होगा।' 'भिक्षुओ ! फूटको वळा समझकर दूसरोंके ऊपर विश्वासकर उस आपत्तिकी प्रति- देशना (=क्षमापन ) करनी चाहिये । यदि भिक्षुओ ! (किसी) भिक्षुने आपत्ति की हो और वह उस आपत्तिको अन्-आपत्ति (के तौरपर) देखता हो ० भय ( के रास्ते या ) अगति (=बुरे रास्ते )में नही जा सकते । यदि ये भिक्षु आपत्तिके न देखनेके लिये मेरा उत्क्षेप ण करेंगे, मेरे साथ प्रवारण न करेंगे ०१ सामीचि कर्म न करेंगे; तो इसके कारण झगळा ० होगा।' तो भिक्षुओ! फूटको बला समझकर, दूसरोंके ऊपर विश्वासकर उस आपत्तिकी प्रतिदेशना ( =क्षमापन ) करना चाहिये।": तव भगवान् उत्क्षिप्त (भिक्षु) के पक्षवाले भिक्षुओंसे यह बात कह आसनसे उठकर चले गये। (४) आवासके भीतर और बाहर उपोसथ करना उस समय उत्क्षिप्तानुगामी (=उत्क्षिप्त भिक्षुका अनुगमन करनेवाले ) भिक्षु वहीं मीमाके भीतर उ पो स थ करते थे, संघकर्म करते थे; किंतु उत्क्षेपक (उत्क्षेपण करनेवाले) भिक्ष सीमासे बाहर जा उपोसथ करते थे संघ-कर्म करते थे। तब एक उत्क्षेपक भिक्षु, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया । जाकर भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठा। एक ओर बैठे उस भिक्षुने भगवान्भ यह कहा- ! “भन्ते ! यह उत्क्षिप्तानुगामी भिक्षु वहीं सीमाके भीतर उपोसथ करते हैं, संघ-कर्म करने हैं। किंतु भन्ते ! हम उत्क्षेपक भिक्षु सीमासे बाहर जाकर उपोसथ करते हैं, संघ-कर्म करते हैं।" "भिक्षु ! यदि उत्क्षिप्तानुगामी भिक्षु वहीं सीमाके भीतर उपोसथ करेंगे, गंघ-कर्म कर जैसाकि मैंने न प्ति, और अनु श्रा व ण का विधान किया है, तो उनके वे कर्म धर्मानुसार=अकोष्ण श्री मुक्त होंगे। भिक्षु ! यदि तुम उत्क्षेपक भिक्षु वहीं सीमाके भीतर जैसाकि मैंने ज्ञ प्नि और अनुभा. वणका विधान किया है, उसके अनुसार उपोसथ करोगे, संघ-कर्म करोगे तो तुम्हारे भी ग धर्मानुसार, अकोप्य और मुक्त होंगे। मो किमलिये ?-भिक्षु तुम्हारे लिये वे दूसरे आवागके भिः हैं और उनके लिये तुम दूसरे आवासके भिक्ष हो । भिक्षु ! भिन्न आवाम होनेके यह दो स्थान है। (१) स्वयंही अपनेको भिन्न आवासवाला बनाता है; या (२) समग्र हो संघ (आपनिफे )न पर या न प्रतिकार करने, अथवा (बुरी धारणाके )न छोटने के लिये उसका उत्क्षेपण करता है। नि: एक आवाम होनेके यह दो स्थान हैं-(१) म्दयं ही अपनेको एक आवागवाला बनाना है; या मंघ-ममग्न हो न देखने, या न प्रतिकार करने अथवा न छोलने के लिये क्षिप्त ( किये गये । को ओ मा रण करता है ।।"3 देखो एप्ट ३२३ ।