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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३९४

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संघकी एकता १०९३ ] [ ३३५ को भाषित-लपित० । (७) ०अन्-आचरितको ०अन्-आचरित० । (८) आचरितको ०आच- रित० । (९) ०अ-प्रज्ञप्तको ०अ-प्रज्ञप्त० । (१०) ०प्रज्ञप्तको प्रज्ञप्त० । (११) अन्-आपत्तिको अन्-आपत्ति० । (१२) आपत्तिको आपत्तिः । (१३) लघु-आपत्तिको लघु-आपत्ति । (१४) गुरु- आपत्तिको गुरु-आपत्तिः । (१५) स-अवशेष आपत्तिको स-अवशेष आपत्ति० । (१६) अन्-अवशेष आपत्तिको अन्-अवशेष आपत्ति० । (१७) दुःस्थौल्य आपत्तिको दुःस्थौल्य आपत्ति० । (१८) अ- दुःस्थौल्य आपत्तिको अ-दुःस्थौल्य आपत्ति० । 6 आयुष्मान् महा मौ द्ग ल्या य न ने सुना--'वह भंडनकारक ०।०। आयुष्मान् महा का श्य प ने ०१० महा का त्या य न ने सुना-०१० महा को छि त (=कोष्ठिल) ने सुना-०१० महा क प्पि न ने सुना-०१० महा चुन्द ०० अनु रु द्ध ०।० रे व त ०० उ पा ली 010 आ न न्द ०१० राहुल०। म हा प्रजा प ती गौ त मी ने सुना—'वह भंडन-कारक० ।' "भन्ते ! मैं उन भिक्षुओंके साथ कैसे वर्तृ ?" "गौतमी ! तू दोनों ओरका धर्म (= वात) सुन । दोनों ओरका धर्म सुनकर, जो भिक्षु धर्म- वादी हों, उनकी दृष्टि, शान्त, रुचि, पसन्द कर । भिक्षुनी-संघको भिक्षु-संघसे जो कुछ अपेक्षा करना है, वह सब धर्मवादीसे ही अपेक्षा करना चाहिये ।" अनाथ-पिंडिक गृह-पतिने सुना—'वह भंडनकारक० ।' “भन्ते ! मैं उन भिक्षुओंके साथ कैसे वर्तुं ?" धर्म सुनकर, "गृहपति ! तू दोनों ओर दान दे । दोनों ओर दान देकर दोनों ओर धर्म सुन । दोनों ओर जो भिक्षु धर्म-वादी हों, उनकी दृष्टि (-सिद्धान्त) क्षांति (=औचित्य), रुचिको ले, पसन्दकर।" "विशाखा मृगार-माताने सुना-जो वह० । “भन्ते ! मैं उन भिक्षुओंके साथ कैसे वर्तुं ?" "विशाखा ! तू दोनों ओर दान दे० । ०रुचिको ले पसन्दकर ।" तव कौशाम्बी-वासी भिक्षु क्रमशः जहाँ श्रावस्ती थी, वहाँ पहुँचे । तब आयुष्मान् सारिपुत्रने जहाँ भगवान् थे, वहाँ जा० “भन्ते ! वह भंडनकारक० कौशाम्बी-वासी भिक्षु श्रावस्ती आ गये । भन्ते ! उन भिक्षुओंको आसन आदि कैसे देना चाहिये ?" "सारिपुत्र ! अलग आसन देना चाहिये।" "भन्ते ! यदि अलग न हो, तो कैसे करना चाहिये ?" "सारिपुत्र ! तो अलग बनाकर देना चाहिये । परन्तु सारिपुत्र ! वृद्धतर भिक्षुका आसन हटाने (के लिये) मैं किसी प्रकार भी नहीं कहता । जो हटाये उसको 'दुप्कृति' की आपत्ति 16 "भन्ते ! आमिप (= भोजन आदि) के (विषयमें) कैसे करना चाहिये ?" "सारिपुत्र ! आमिप सवको समान वाँटना चाहिये ।"7 ३-संघ-सामग्री (= ० एकता) तव धर्म और विनयको प्रत्यवेक्षा (=मिलान, खोज) उस उत्क्षिप्त भिक्षुको (विचार) हुआ -'यह आपत्ति (=दोप) है अन्-आपत्ति नहीं है। मैं आपन्न (-आपत्ति-युक्त) हूँ, अन्- आपन्न नहीं हूँ। मैं उत्क्षिप्त (='उत्क्षेपण' दंडसे दंडित) हूँ, अन्-उत्क्षिप्त नहीं हूँ। अ-कोप्य स्था- नाह-धार्मिक कर्म (-न्याय)ने में उत्क्षिप्त हूँ।' तब वह उत्क्षिप्त भिक्षु (अपने).. अनुयायियोंके पास गया,...बोला-'यह आपत्ति है आवुलो ! आओ आयुप्मानो मुझे मिला दो।।। तब वह उत्क्षिप्त