पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३९७

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३३८ ] ३-महावग्ग [E न सोचने लगता है न चुप होता है। वह पंडित कालसे प्राप्त उत्तर देने योग्य वचनको, कह, विज्ञोंकी सभाका रंजन करता है। (जो) वृद्धतर भिक्षुओंमें आदर-युक्त, अपने सिद्धान्तोंमें विशारद, मीमांसा करने में समर्थ, कथन करनेमें होशियार, और विरोधियोंके भावको जाननेवाला (होता है)। विरोधी जिससे निग्रह किये जाते हैं, महाजन' (जिससे वातको) समझ पाते हैं, बिना हानि किये प्रश्नका उत्तर देते वह अपने सम्प्रदाय (और) सिद्धान्तको नहीं त्यागता ।। (संघके) दूत-कर्ममें समर्थ, अच्छी तरह सीखा हुआ, और संघके कृत्योंमें जैसा उसको कहें, भिक्षुगण द्वारा भेजे जानेपर (वैसा ही उस) वचनको करता है, और 'मैं करता हूँ -वह अभिमान नहीं करता ।। जिन जिन बातोंमें आपत्ति (अपराध) युक्त होता है, जैसे उस आ पनि ने मुक्ति होती है, ये दोनों (भिक्षु-भिक्षुणी) वि भंग' उसको अच्छी तरह आते हैं, आपत्तिने छूटनेके पदका कोविद (होता है) । जिनका आचरण करते निस्सारणको प्राप्त होता है, और जैसे (दोपवाली) वस्तुसे निस्सारित होता है, उस (आचरण) को करनेवाले प्राणीका (जैसे ओमारण होता है) विभंगका कोविद, इसे भी जानता है ।। वृद्धतर भिक्षुओंमें आदर-युक्त, नवों स्थविरों और मध्यमोंमें (भी); महाजनके अर्थकी रक्षामें पंडित, ऐसा भिक्षु यहाँ विशेषतः ग्रहण करने लायक. (है) ।" कोसम्बकक्खन्धक समाप्त ||१०|| महावग्ग समाप्त ॥३॥ ५ सर्वसाधारण । भिड-भिश्वनी पाति मो क्व (पृष्ट १-३०)का ही दुमन नाम वि भंग ।