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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४००

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४-चुल्लवग्ग १-कर्म-स्कंधक १-तर्जनीय कर्म । २--नियत्सकर्म। ३--प्रनाजनीय कर्म। ४--प्रतिसारणीय कर्म । ५--आपत्ति न देखनेसे उत्क्षेपणीय कर्म। ६--आपत्तिका प्रतिकार न करनेसे उत्क्षेपणीय कर्म । ७-बुरी धारणा न छोळनेसे उत्क्षेपणीय कर्म । ६१-तर्जनीय कर्म १-श्रावस्ती or (१) तर्जनीय-कर्मके आरम्भकी कथा उस समय वुद्ध भगवान् श्रा व स्ती में अ ना थ पि डि क के आराम जे त व न में विहार करते थे। उस समय पंडुक और लो हि त क भिक्षु स्वयं झगळा, कलह, विवाद, और वकवाद, करनेवाले थे; संघमें अधिकरण (=मुकदमा) करनेवाले थे। और जो दूसरे भी झगळा० करनेवाले भिक्षु थे उनके पास जाकर ऐसा कहते थे—'आवुसो ! तुम आयुष्मानोंको वह हराने न पावे । जवरदस्तको जवरदस्तसे मुकाविला करना चाहिये । तुम उससे अधिक पंडित, अधिक चतुर, अधिक बहुश्रुत और अधिक समर्थ हो। मत उससे डरो। हम भी तुम्हारे पक्षवाले होंगे।' इससे नित्यही अनुत्पन्न झगळे उत्पन्न होते थे, उत्पन्न झगळे अधिक विस्तारको प्राप्त होते थे । जो वह अल्पेच्छ, संतुष्ट, लज्जाशील, संकोची, सीख चाहनेवाले थे वे हैरान.. होते-'कैसे पंडु क और लो हि त क भिक्षु स्वयं० उत्पन्न झगळे अधिक विस्तारको प्राप्त होते हैं !' तव उन भिक्षुओंने भगवान्से यह बात कही। तव भगवान्ने इसी संबन्धमें इसी प्रकरणमें भिक्षसंघको एकत्रितकर भिक्षुओंसे पूछा--- "सचमुच भिक्षुओ ! पंडु क और लो हि त क भिक्षु स्वयं झगळा करनेवाले ० उत्पन्न झगळे अधिक विस्तारको प्राप्त होते हैं ?" "( हाँ ) सचमुच भगवान् बुद्ध भगवान्ने फटकारा --"भिक्षुओ ! उन मोघपुरुपों (=फजूलके आदमियोंके लिये ) यह अयुक्त है, अनुचित है, अप्रतिरूप है, श्रमणोंके आचार के विरुद्ध है, अविहित है, अकरणीय है। कैसे भिक्षुओ! वे मोघपुरुप स्वयं सगळा करनेवाले ० उत्पन्न झगळे और भी अधिक विस्तारको प्राप्त होते हैं। भिक्षुओ! न यह अप्रसन्नों-(श्रद्धा-रहितों ) को प्रसन्न करनेके लिये है, या प्रसन्नोंकी ( श्रद्धाको ) और " ! ५ पड्वर्गीय भिक्षुओंमेंसे दोके नाम (--अट्ठ कथा; देखो पृष्ठ १४ टिप्पणी २ भी)। १९११ ] [ ३४१