पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४०१

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. ३४२ ] ४-चुल्लवग्ग [ १९११३ बढ़ानेके लिये है। बल्कि भिक्षुओ ! अप्रसन्नोंको अप्रसन्न करनेके लिये है, और प्रसन्नों (=श्रद्धालुओं) मेंसे भी किसी किसीको उल्टा करनेवाला है।" तब भगवान्ने उन भिक्षुओंको अनेक प्रकारसे फटकारकर दुर्भरता (=भरण पोषणमें कठिन) दुष्पुरुषता, म हे च्छु कता (=बळी इच्छा ) असन्तोप, संग णि का (=जमातमें रहने की प्रवृत्ति ) और आलस्य (=कौसीद्य )की निन्दा करके अनेक प्रकारसे सुभरता, सुपुरुपता, अल्पेच्छता, संतोप, तप, अवधूतपन, प्रासादिकता (मानसिक स्वच्छता), त्याग, वीर्यारंभ ( उद्योग परायणता )की प्रशंसा करके भिक्षुओंसे उसके अनुकूल, उसके योग्य, धर्म-संबंधी कथा करके भिक्षुओंको संबोधित किया-- "तो भिक्षुओ ! संघ पंडु क और लो हि त क भिक्षुओंका तर्जनीय कर्म करे० ।" (२) दंड देनेकी विधि "और भिक्षुओ! इस प्रकार करना चाहिये । पहले पं डु क और लो हि त क भिक्षुओंको प्रेरित करे; प्रेरित करके स्मरण दिलाना चाहिये । स्मरण दिलाकर आपत्ति (अपराध) का आरोप करना चाहिये । आपत्तिका आरोप करके चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे--" क. ज्ञप्ति-'भन्ते ! संघ मेरी सुने, यह पंडुक और लो हि त क भिक्षु स्वयं झगळा करनेवाले० उत्पन्न झगळे और भी अधिक विस्तारको प्राप्त होते हैं । यदि संघ उचित समझे तो संघ पंडु क और लो हि त क भिक्षुओंका तर्जनीय कर्म करे; यह सूचना है । अनु श्रा व ण-(१) 'भन्ते ! संघ मेरी सुने । यह पंडुक और लोहितक भिक्षु स्वयं झगळने- वाले ० उत्पन्न अगळे और भी अधिक विस्तारको प्राप्त होते हैं । संघ पंडुक और लोहितक भिक्षुओंका तर्जनीय कर्म करता है। जिस आयुप्मान्को पंडु क और लो हि त क भिक्षुओंका तर्जनी य क र्म करना पमंद है वह चुप रहे; जिसको नहीं पसंद है, वह बोले । द्वि ती य अनु था व ण-'दूसरी बार भी इसी बातको कहता हूँ-भन्ते ! संघ मेरी मुने। यह गंडुक और लो हि त क भिक्षु स्वयं झगळा करनेवाले ० । तृ ती य अनु श्रा व ण-'तीसरी बार भी इसी बातको कहता हूँ-भन्ते ! संघ मेरी गुने । यह पंडुक और लोहितक भिक्षु स्वयं झगळा करनेवाले ०१ धा र णा-'संघने पंडुक और लोहितक भिक्षुओंका तर्जनीय कर्म कर दिया। गंधको पगंद है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं इसे समझता हूँ।' (३) नियम-विरुद्ध दंड १-"भिक्षुओ ! तीन वाताने युक्न तर्जनीय कर्म, अधर्म कर्म, अविनय कर्म, और ठीको न मंपादित (कर्म कहा जाता) है--(१) मामने नहीं किया गया होता; (२) बिना पूछे किया गया होगा है: (३) बिना प्रतिज्ञा (=म्वीकृति) कगये किया गया होता है ।......2 २-"और भी भिक्षुओ! नीन बातोंसे युक्त तर्जनीय कर्म, अधर्म कर्म, अविनय कर्म और ठीक में न संपादिन -(१) बिना आपनिक किया होता है; (२) देगना (= बुद्धोपदेश)गे बाहर जानेवादी आपत्तिके लिये किया गया होता है : (B) देगित (=क्षमा कराई जा चकी ) आपनिक लिये किया गया होता है !... ३-"और भी भिक्षओ! तीन दातोन यदन तर्जनीय कर्म, अधर्म कर्म होता है-(?) बिना प्रेरित किये दिया गया होता है; (२) बिना स्मरण कग किया गया होता है; (३) आपनका आरोप बिना किये दिया गया होता है।..4 9 पहले अनुश्रावग आई वादावली यहां फिर दुहगनी चाहिये ।