पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४३१

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३-समुच्चय-स्कंधक १--शुक्र-त्यागके दण्ड । २---परिवास-दण्ड । ३--दुवारा उपसम्पदा लेनेपर पहिलेके बचे परिवास आदि दण्ड । ४--दण्ड भोगले समय नये अपराध करनेपर दण्ड । ५--मूलसे-प्रतिकर्षणमें शुद्धि। ६--अशुद्ध मूलसे-प्रतिकर्षण । ७---शुद्ध मूलसे-प्रतिकर्षण। ६१-शुक्र-त्यागके दगड 2 -श्रावस्ती क-(१)छ गतका मानत्व १-जम समय बुद्ध भगवान् श्रा व म्नी में अ ना थगिं डिक के आगम जेतवनमें बिहार करने थे। उस समय आयामान उदा यी ने बे-हका ( अप्रति च्छन्न ) जान बूझ कर गक-न्यागका दोष ( अत्यात) किया था। उन्होंने भिक्षुओंसे कहा-- "आवुमो ! मैंने जान बूझकर शुक्र न्याग की एक बे-टंकी आपनि की है। मुझे कैमा करना चाहिये ?" भगवान्से यह बात कही-- "तो भिक्षुओ ! मंच उदायीभिक्षुको० जान बज कर शत्र-न्यागकी आगनिनः लिये छ गनवाला मा न त्व दे । "और भिक्षुओ ! इस प्रकार देना चाहिये---उम उदा यी शिक्षको गंधले. पाग गा एक कंगे पर उत्तगमंघ का वृद्ध भिक्षुओके चरणों में बंदना कर. कलं. बंट हाथ जोन, यह कहना चाहिये--- "भन्ले ! मैंने ने की जान बाबा सत्र न्यागी एक. आपलको है । गो भन्ले ! मैं गंगे। वे-की जान बूझकर अत्र-यागी आपनि के लिये छ गत यात्रा मानन्ब मागता है। दूसरी बार भी। तीमरी बार भी। !