पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४३५

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३७६ ] ४-चुल्लवग्ग [३७२।ग "आवुसो ! मैंने० पाँच दिनवाले शुक्र-त्यागका एक अपराध किया 1० संबने० (क) पाँच दिन का परिवास दिया ।० (ख) मूल से प्रति क र्पण (दंड) किया ।० (ग) मूल से प्रति कर्पण (दंड) किया। सो मैंने आवुसो! परिवास पूरा कर लिया । मझे कैसा करना चाहिये ।" भगवान्से यह बात कही-- "तो भिक्षुओ ! उदायी भिक्षुको संघ तीनों आपत्तियोंके लिये छ रात का मानत्व दे । और इस प्रकार देना चाहिये--०१।१ "ग. धा र णा-'संघने उदायी भिक्षुको तीनों आपत्तियोंके लिये छ रातवाला मा न त्व दिया। संघको पसंद है, इस लिये चुप है-ऐसा मैं इसे समझता हूँ।" (५) मानत्त्व पूरा करते फिर उसी दोषके करनेके लिये मूलसे- प्रतिकर्षणकर छ रातका मानत्त्व उसने मानत्व पूरा करते बीचमें जान बूझकर अप्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी एक आपत्ति की।०।-- "तो भिक्षुओ! संघ उ दा यी भिक्षुको बीचमें० अप्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी एक आपत्तिके लिये मूलसे-प्रतिकर्पण कर छ रातका मानत्व दे; और भिक्षुओ ! इस प्रकार मूलस-प्रतिकर्पण करे--०२ । 10 "और भिक्षुओ ! इस प्रकार छ रातवाला मानत्व देना चाहिये- (६) फिर वही करनेके लिये मूलसे-प्रतिकर्पण कर छ रातका मानत्त्व उसने मानत्व पूराकर आ ह्वा न के योग्य हो बीचमें जान बूझकर अप्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी एक आपत्ति की ।०।- "तो भिक्षुओ ! संघ उदायी भिक्षुको बीचम० अप्रतिच्छन्न शुक्र-त्यागकी एक आपत्ति के लिये मूल से प्रति क र्पण कर, छ रातका मानत्व दे। और भिक्षुओ ! इस प्रकार मूलसे प्रतिकर्षण करे- "और भिक्षुओ ! इस प्रकार छ रातका मानत्व दे--०३।" (७) दण्ड पूरा कर लेनेपर अाह्वान उन्होंने मानत्व पूराकर भिक्षुओंसे कहा- "आवुसो ! मैने० पाँच दिनके प्रतिच्छन्न गुक्र-त्यागकी एक आपति की । संघने । दिनवाला परिवास दिया ।। (ब) मूलमे प्रतिकर्पण किया ।० (ग) मुलने प्रतिकर्पण किया । (घ) मूलमे प्रतिकर्पण कर छ गतबाला मानन्व दिया। मा मैने मानत्व पूग कर लिया, अब म केगे करना चाहिये ? भगवान्ने यह बात कही।-- o II (क) पांच " १ देखो दुल ३९११ क, पृष्ट ३७२-३ । २ याचनाके वक्त अवतककी आपनियोंको जोळ मानस्व देनेकी तरह यहां भी 'गू च ना और 'अनु श्रावण' पढ़ना चाहिये । “छ रातवाला मानत्व' की जगह "मूदमे-प्रतिकर्षण" पढ़ना चाहिय; वही पृष्ठ ३७२-३ । ३ याचनाके वक्त अवतरकी आपतियोंको जोळ मानन्व देनेकी तरह यहां भी 'मूचना' और 'अनुश्रावण' पढ़ना चाहिए । वही पृष्ठ ३७२-३ ।