पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४३६

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1 १ "तब ३९१११२ ] पक्ष भरका परिवास [ ३७७ "तो भिक्षुओ! संघ उदायी भिक्षुका आ वा न करे। और भिक्षुओ! इस प्रकार आह्वान करना चाहिये । 12 "उस उदायी भिक्षुको संघके पास जाकर ० यह कहना चाहिये---'भन्ते ! मैंने ० पाँच दिनके प्रतिच्छन्न शुक्रत्यागकी एक आपत्ति की। ० संघने (क) पाँच दिनवाला परिवास दिया। ० (ख) मूलसे-प्रतिकर्पण किया। ० (ग) मूलसे-प्रतिकर्षण किया। ० (घ) मूलसे-प्रतिकर्पण कर छ रातवाला मानत्त्व दिया । ० (ङ) मूलसे-प्रतिकर्पण कर छ रातवाला मानत्त्व दिया । सो भन्ते ! मैं मानत्त्व पूरा कर संघसे आ ह्वा न की याचना करता हूँ।' चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे--० "ग. धा र णा-'संघने उ दा यी भिक्षुको आह्वान दे दिया। संघको पसंद है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं इसे समन्नता हूँ।" घ (१) पनभर छिपायेके लिये पक्ष भरका परिवास उस समय आयुप्मान् उदायीने जानबूझकर शुक्रत्यागकी एक पक्ष प्रति च्छन्न आपत्ति की। उन्होंने भिक्षुओंसे कहा- "आवुसो ! मैने ० शुक्रत्यागकी एक पक्ष प्रतिच्छन्न आपत्ति की है। मुझे कैसे करना चाहिये ?" भगवान्से यह बात कही-- "तो भिक्षुओ ! संघ उदायी भिक्षुको ० आपत्तिके लिये पक्षभरका परिवास दे। 13 "और भिक्षुओ! इस प्रकार (परिवास) देना चाहिये--वह उदायी भिक्षु संघके पास जाकर ० ऐसा कहे--' संघसे पक्षभरका परिवास माँगता हूँ।' तव चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे-०३। "ग. धा र णा--'संघने उदायी भिक्षको ० आपत्तिके लिये पक्षभरका परिवास दिया। संघको पसंद है, इसलिये चुप है--ऐसा मै इसे समझता हूँ।" (२) फिर पाँच दिन छिपाये उसी दोषके लिये मूलसे-प्रतिकर्षण कर समवधान-परिवास उसने परिवास करते हुए वीचमें ० पाँच दिनकी प्रतिच्छन्न शुक्रत्यागकी एक आपत्ति की। भिक्षुओंसे कहा-- "आवुमो ! मैने गुऋत्यार एक प्रतिच्छन्न आपत्ति की। ० संघने पक्षभरका परिवास दिया। परिवास करते हुए मंने बीचमें ० पाँच दिनकी शुत्रत्यागकी एक प्रतिच्छन्न आपत्ति की, अब मुझे कैसे करना चाहिये ?" 0-- "तो भिक्षुओ! संघ उदायी भिक्षुको पाँच दिनकी शुत्रत्यागकी एक प्रतिच्छन्न आपत्तिके लिये मलने प्रतिवर्पणकर प्रथमकी आपत्तिके लिये समवधान परिवास दे। 14 "और भिक्षुओ! इन प्रकार मूलमे प्रतिकर्पण करना चाहिये---०५। ! ' देखो चुल्ल ३९११ ख, पृष्ठ ३७३-७५ (याचनामें ङ तककी बातोंका समावेश करके)। २दोष करके पक्ष भर छिपा रखना। सूचना और अनुश्रावणके लिये देखो चुल्ल ३९१ क, पृष्ठ ३७२-३ (“छ रातवाला मानत्व'की जगह 'पक्ष भरका परिवास' पढ़ना चाहिये ) । । देखो पृष्ट ३७८ , ३७९ , ३८५, ३८८, ३९१ , ३९२ । " देखो चुल्ल ६६१। क., पृष्ठ ३७२-३ ('रातवाला मानत्त्व'के स्थानपर 'मूलसे- प्रतिकर्षण, रखकर)।