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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४५२

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अशुद्ध मूलसे-प्रतिकर्पण ३ [ ३९१ ३६ ] (७) “दो भिक्षुओंने शुद्धक आपत्तियां की हैं। वह शुद्धकके तौरपर देखते हैं। ०१ दोनोंको धर्मानुसार (दंड) करना चाहिये ।। 1050 छ. दो भिक्षुओंकी धारणा- ( १ ) "दो भिक्षुओंने संघादिसेसका अपराध किया है। वह (उस) संघादिसेसको संघादि- सेसके तौरपर देखते हैं। एक कह देना चाहता है, दूसरा नहीं कहना चाहता। वह पहिले याम (=४ घंटा) में भी छिपाता है, दूसरे याम भी छिपाता, तीसरे याम भी छिपाता है; तो लाली (अरुण) उग आनेपर आपत्ति छिपाई कही जायेगी। जो छिपाता है, उससे दुक्कटकी दे श ना करवानी चाहिये, फिर छिपायेके अनुसार परिवास दे, दोनोंको मानत्त्व देना चाहिये। IOS I (२) ०२ संघादिसेसके तौरपर देखते हैं। वह प्रकट करनेके लिये जाते हैं। एकको रास्तेमें न प्रकट करनेका अमरख (=प्रक्षधर्म) उत्पन्न हो जाता है । वह पहिले याम भी छिपाता है, दूसरे याम भील, तीसरे याम भी० । (तो) लाली उग आनेपर आपत्ति छिपाई कही जायेगी। IOS2 (३) "० संघादिसेसके तौरपर देखते हैं । वह दोनों पागल हो जाते हैं। पीछे भिक्षुपन छोळ एक (अपने अपराधको) छिपाता है, दूसरा नहीं छिपाता। जो छिपाता है, ०३ । 1053 ( ४ ) " वह दोनों प्रातिमोक्ष-पाठके वक्त ऐसा कहते हैं-'इसी वक़्त हमें मालूम हुआ, कि यह धर्म (काम) भी सुत्त (बुद्धोपदेश, विनय) में आया है, सुत्तसे मिला है, प्रति आधे मास (प्रातिमोक्ष-पाठ के वक्त) पाठ (=उद्देश) किया जाता है । (तव) वह संघादिसेसको संघादिसेसके तौरपर देखते हैं। (उनमें) एक छिपाता है, दूसरा नहीं छिपाता। ०४ ।" 1054 ६-अशुद्ध मूलसे-प्रतिकर्षण क. ( १ ) “भिक्षुओ ! यदि एक भिक्षुने परिमाणवाली, अपरिमाणवाली, एक नामवाली, अनेक नामवाली भी, सभागवाली (समान) भी वि-सभागवाली भी, व्यवस्थित (=अलगवाली) भी, सम्भिन्न (=मिलीजुली) भी बहुतसी संघादिसेसकी आपत्तियां की हैं । वह संघसे उन आपत्तियोंके लिये स म- व था न परिवास मांगता है। संघ उसे० समवधान-परिवास देता है । वह परिवास करते समय बीचमें वहृतमी परिमाणवाली न-छिपाई संघादिसेसकी आपत्तियाँ करता है। वह संघसे वीचकी (की गई) आपत्तियोंके लिये मूल ने प्रति क ष ण मांगता है। संघ उसे धार्मिक (=न्याययुक्त)-अ-कोप्य, स्थानवं. योग्य वर्म (फैसले ) से वीचकी आपत्तियोंके लिये मूलसे-प्रतिकर्पण करता है, धर्म (= नियम) में समवधान-परिवास देता है, अ-धर्म (=नियमविरुद्धसे) मानत्त्व देता है, अधर्मसे आह्वान करता है। तो भिक्षुओ ! वह भिक्षु उन आपत्तियों (अपराधों)से बुद्ध नहीं है। 1055 ( 2 ) "भिक्षुओ! यदि एक भिक्षुने ०५ बहुतसी संघादिसेसकी आपत्तियां की हैं। वह संघसे उन आपनियोंके लिये समवधान-परिवास मांगता है। ०५ वह संघले वीचकी (की गई) आपत्तियोंके लिये मल ने प्रति कार्प ण माँगता है। संघ उने धार्मिक-अकोप्य, स्थानके योग्य कर्मसे वीचकी आपनियोंके लिये मूलने प्रतिकर्पण करता है, धर्मने नमवधान-परिवास होता है, अधर्मसे मानत्त्व देता है. अधर्म आह्वान करता है । तो भिक्षुओ! वह भिक्षु उन आपत्तियोंने युद्ध नहीं है। 1056 (३) "" बीच बहुतनी परिमाणवाली छिपाई भी न छिपाई भी संधादिलेसकी आप- त्तियां करता है। 1105 देखो ऊपर (३)। पहेलोपर। 'ऊपर (१) की भांति । देखो ऊपर(१)।