पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४५१

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२ ३९० ] ४-चुल्लवग्ग [ ३१५।ङाच सेसकी आपत्तियोंको कर, विना छिपाये गृहस्थ हो जाता है। वह फिर भिक्षु बन यदि उन आपत्तियोंको नहीं छिपाता, तो उस भिक्षुका मूलसे-प्रतिकर्पण करना चाहिये । ०१ i 343 ग. मानत्त्व-चारिक (१-१००)-- (१) गृहस्थ होना (क) (१-२००) "भिक्षुओ ! यदि एक भिक्षु मानत्त्वका आचरण करते बीचमें० ।" 443 घ. आह्वानार्ह १-१००-- (१) गृहस्थ होना (क) (१-२०) "भिक्षुओ! यदि एक भिक्षु आह्वानके योग्य हो बीचमें० 543 ङ. परिमाण, अपरिमाण-- १--(क) (१-२०) “भिक्षुओ ! यदि एक भिक्षुने बहुतसी संवादिमेसकी आपत्तियां की हैं जिनमें परिमाणवालीको छिपा और परिमाण रहितको बिना छिपाये, एक नामवालीको बिना छिपाये, नामवालीको विना छिपाये, सभागको बिना छिपाये, विसभाग (अ-समना) को बिना छिपाये, व्यवस्थित (अलगवाली)को बिना छिपाये, स म्भिन (=मिश्रित) को बिना छिपाये, गृहस्थ हो जाता है । ०। 643 २-(क. १-२०) "०२ श्रामणेर हो जाता है० । 743 ३-(क १-२०) "० पागल हो जाता है । 843 -(क १-२०) "० विक्षिप्त हो जाता है। 1943 ५-(क १-२०) "० वेदनट्ट हो जाता है । 1043 च. दो भिक्षुओंके दोष- (१) “दो भिक्षुओंने संघादिसेसकी आपत्तियां की हैं। वह संघादिसेसको संघादिसेस करके देखते हैं। (उनमें) एक (आपत्तिको) छिपाता है, दूसरा नहीं छिपाता । जो छिपाता है, उसे दुक्कटकी दे श ना (=Confession) करवानी चाहिये, फिर छिपायेकी भाँति परिवास दे, दोनोंको मानत्त्व देना चाहिये । 1044 (२) “दो भिक्षुओंने संघादिसेसकी आपत्तियां की हैं। वह संघादिसेसमें सन्देहयुक्त होते हैं । (उनमें) एक छिपाता है, दूसरा नहीं छिपाता। जो छिपाता है, उसमे दुक्कटकी देशना करवानी चाहिये, फिर छिपायेके अनुसार परिवास दे, दोनोंको मानत्त्व देना चाहिये । 1045 ( ३ ) "०२ संघादिसेसमें मिश्रित (= मि श्र क) दृष्टि रखनेवाले होते हैं ० २ | I0.46 (४) “दो भिक्षुओंने मिश्रक आपत्तियां की हैं, वह मिश्रकको संघादिनेमके तौरगर देखते हैं। ० । 1047 (५) "दो भिक्षुओंने मिश्रक आपत्तियां की हैं। वह मिथकको मिथकके तौरपर देखते हैं। 091 1048 (६) "दो भिक्षुओंने शुद्ध क आपत्तियां की हैं । वह गुद्धकको गंघादिमेनके तौरपर देखते हैं। ०४ ! 1049 ४....... 1 १ऊपर (९-१२)को भाँति ("जानने"की जगह “याद करके" रखकर)। देखो पृष्ठ ३८८-८९ (१-२०) गृहस्य होनाकी भाँति । देखो पृष्ठ ३८८-८९ परिवासकी भाँति (१०० भेद)। ४ देखो ऊपर (१)।