पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४६८

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[ ४०७ I IOI देखना; ४९३।२] अधिकरणोंके मूल विवाद करनेके मूल भी हैं; (ख) (लोभ-उप-मोह=) तीन अकुशल-मूल (बुराइयोंकी जळ) विवाद-अधिकरणके मूल हैं; (ग) (=अलोभ-अद्वेष-अमोह) -तीन कुशल-मूल (भलाइयोंकी जळ) भी विवाद-अधिकरणके मूल हैं (क) “कौनसे छ विवादमूल विवाद-अधिकरणके मूल हैं ?--(१) जव भिक्षुओ ! भिक्षु क्रोधी, उपनाही (=पाखंडी) होता है । जो कि भिक्षुओ! वह भिक्षु क्रोधी, उपनाही होता है, (उससे) वह शास्ता (= वुद्ध) में श्रद्धा-सत्कार-रहित हो विहरता है, धर्भमें भी०, संघमें भी० । शिक्षा (= भिक्षुओंके नियम) को भी पूर्ण करनेवाला नहीं होता। जो कि भिक्षुओ! वह भिक्षु शास्तामें श्रद्धा-सत्कार रहित हो विहरता है। शिक्षाको भी पूर्ण करनेवाला नहीं होता, वह संघमें वि वा द उत्पन्न करता है। और वह विवाद बहुत लोगोंके अहित, असुखके लिये होता है, बहुतसे लोगोंके अनर्थके लिये (होता है), देव-मनुप्योंके अहित और दुःखके लिये होता है। भिक्षुओ! यदि इस प्रकारके विवाद-मूलको तुम अपने भीतर या बाहर देखना; तो भिक्षुओ! तुम उस पापी विवाद-मूलके प्रहाण (=विनाश, त्याग) के लिये उद्योग करना। यदि भिक्षुओ! तुम इस प्रकारके विवाद-मूलको अपने भीतर या वाहर न तो भिक्षुओ ! तुम उस पापी विवाद-मूलके भविष्यमें न उत्पन्न होने देनेके लिये प्रयत्न करना। इन प्रकार इस पापी विवाद-मूलका विनाश होता है। इस प्रकार इस पापी विवाद-मूलका भविप्यमें न उत्पन्न होना होता है। जब भिक्षुओ! भिक्षु (२) प्रक्षी (अमरखी), पलासी (=प्रदासी- निष्ठुर) होता है, । ० (३) ईर्ष्यालु, मत्सरी होता है, । ० (४) शट, मायावी होता है,०। (५) पापेच्छ (=बदनीयत), मिथ्यादृष्टि (=बुरी धारणावाला) होता है। ० (६) संदृष्टि-परामर्शी (= वर्तमानका देखनेवाला), आधान-ग्राही (=डाह रखनेवाला), छोळनेमें मुश्किल करनेवाला होता है। जो भिक्षुओ! भिक्षु संदृष्टिपरामर्शी० होता है, वह शास्तामें भी श्रद्धा सत्कार रहित होता है।' यह छ विवादमूल विवाद-अधिकरणके मूल हैं । 102 (ख) “कौनसे तीन अवुशल-मूल (-बुराइयोंकी जळ) विवाद-अधिकरणके मूल हैं ? जब भिक्षु लोभ-युदत चित्तसे विवाद करते हैं, द्वेष-युक्त चित्तसे०, मोह-युक्त चित्तसे विवाद करते हैं- 'धर्म है या अधर्म' ० ' अदुठुल्ल आपत्ति है' । यह तीन कुशल-मूल विवाद-अधिकरणके मुल हैं। IOI (ग) कौन से तीन कुशल-मूल विवाद-अधिकरणके मूल हैं ? --"जव भिक्षु लोभरहित चित्तवाले हो विवाद करते हैं, द्वेपरहित०, मोहरहित० चित्तवाले हो विवाद करते हैं-'धर्म है या अधर्म', । यह तीन युगल-विवाद-अधिकरणके मूल हैं। 103 इ. अन वा द - अधिक र ण के मूल-क. "अनुवाद-अधिकरणका क्या मूल है ? ---(क) छ अनुवाद करनेके मूल भी हैं; (ख) तीनों अकुगल-मूल (=लोभ, द्वेष, मोह) अनुवाद- अधिकरण मूल है; (ग) तीनों कुशल-मूल (=अलोभ, अद्वेप, अमोह) अनुवाद-अधिकरणके मूल है; (घ) काया भी अनुवाद-अधिकरणका मूल है; (ङ) वचन भी अनुवाद-अधिकरणका मूल है । Iv4 (क) "कौनते अनुवाद-मूल अनुवाद-अधिकरण-मूल हैं ?-जव भिक्षुओ ! भिक्षु (१) क्रोधी, उपनाही (=पाखंडी) होता है। शिक्षाको भी पूर्ण करनेवाला नहीं होता। वह संघमें अनु वा द उत्पाःः करता है । और वह अन्दाद दहृत लोगोंके अहित, असुखके लिये होता है । ०१ (६) संदृष्टि- परामर्श, आधानाही (-ही) होता है । भिक्षुओ ! यदि इस प्रकारके अनुवादमूल-को तुम अपने भीतर या बाहर देखना; तो भिक्षुजो! तुम उन पापी अनुवाद-मूलके प्रहाणके लिये उद्योग ६ गपति उस समय रंगीन लबळीकी शलाकाओंसे ली जाती थी। शलाका वितरण परनेवालेको शलाहाहापर. कहते थे।