पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४८१

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४२० ] ४-चुल्लबग्ग [ ५११५ चाहिये, ० दुक्कट ।" I4 ३--० पड्वर्गीय भिक्षु दर्पणमें भी, जल भरे पानीमें भी मुखके प्रतिविम्बको देखते थे । ० कामभोगी गृहस्थ । ० भगवान् ० ।- "भिक्षुओ! दर्पण या जलपात्र में मुखके प्रतिविम्बको नहीं देखना चाहिये, ० दुक्कट।" 15 ४--उस समय एक भिक्षुके मुखमें घाव था। उसने भिक्षुओंमे पूछा-'आबुसो ! मेरा घाव कैसा हैं ?' भिक्षुओंने कहा--'आवुस ! ऐसा है।' वह नहीं विश्वास करता था । भगवान्मे यह बात कही।-- "भिक्षुओ ! अनुमति दे देता हूँ, रोग होनेपर दर्पण या जलपात्रमें मुंहकी छायाको देखनेकी ।" 16 (४) लप, मालिश आदि षड्वर्गीय भिक्षु मुखैपर लेप करते थे, मुखपर मालिश करते थे, मुखपर चूर्ण डालते थे, मैनसिलसे मुखको अंकित करते थे, अंगराग (=शरीरमें लगाने का रंग) लगाते थे, मुखराग लगाते थे, अंगराग और मुखराग (दोनों) लगाते थे । ०जैसे कामभोगी गृहस्थ । ० भगवान् ०।- "भिक्षुओ ! मुखपर लेप, ० मालिश नहीं करनी चाहिये, मुखपर चूर्ण नहीं डालना चाहिये, मैनसिल (=मनःशिला) से मुखको अंकित नहीं करना चाहिये; अंगराग०, मुखराग०, अंगराग और मुख-राग नहीं लगाना चाहिये; जो लगाये उसे दुक्कटका दोप है ।” 17 २- उस समय एक भिक्षुको आँखका रोग था। भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ रोग होनेपर मुखपर लेप करनेकी ।" 18 (५) नाच-तमाशा १-उस समय रा ज गृह में गि र ग्ग-स म ज्ज (=पहाड़के पास मेला) था। पड्वर्गीय भिक्षु गिरग्ग-समज्ज देखने गये । ० जैसे कामभोगी गृहस्थ ० । ० भगवान् ० ।- "भिक्षुओ ! नाच, गीत, वाजेको देखने नहीं जाना चाहिये, ० दुक्कट 1" 19 २-उस समय पड्वर्गीय भिक्षु लम्बे गानेके स्वरसे धर्म (=बुद्धके उपदेश-सूत्र) को गाते थे । लोग हैरान होते थे--जैसे हम गाते हैं, वैसे ही लम्बे गानेके स्वरसे यह शा क्य-पुत्री य श्रमण (=साधु) भी धर्मको गाते हैं । ० सचमुच ० । ० भगवान् "भिक्षुओ लम्वे गाने के स्वरसे धर्म के गाने में यह पाँच दोप हैं-(१) अपने भी उस स्वरमें रागयुक्त होता है; (२) दूसरे भी उस स्वरमें रागयुक्त होते हैं; (३) गृहस्थ लोग भी होते हैं; (४) अलाप लेनेकी कोशिश करने में समाधि-भंग होती है; (५) आनेवाली जनता उनका अनुसरण करती है।-भिक्षुओ ! यह पाँच दोप ० । "भिक्षुओ ! लम्बे गानेके स्वरसे धर्म को नहीं गाना चाहिये, जो गाये उसे दुक्कटका दोप है।" 20 ३--उस समय भिक्षु स्व र भ ण्य के (साथ सूत्र पढ़ने ) में हिचकिचाते थे। भगवान्ने यह बात कही।- "भिक्षओ ! अनुमति देता हूँ स्वरभण्यकी ।" 2I o o १ वेदपाठियोंकी भांति स्वरसहित पाठ ।