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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४८०

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५७१।३ ] केश, कंघी, दर्पण आदि [४१९ ५-० षड्वर्गीय भिक्षु गंधर्व-हस्त (गन्ध ब ह त्थ) से नहाते थे । ० जैसे काम भोगी गृहस्थ । ० भगवान्से यह बात कही ०।- "भिक्षुओ ! गंध व्ब ह त्य से नहीं नहाना चाहिये, ० दुक्कट ०।"5 ६~० षड्वर्गीय ० । ० जैसे काम भोगी गृहस्थ । ० भगवान् ०।- "भिक्षुओ! कु रु विन्द क सु त्ति (=कुरुविन्दक शुक्ति) से नहीं नहाना चाहिये, o ! दुक्कट ०।"6 षड्वर्गीय ० १ ० जैसे काम भोगी गृहस्थ । ० भगवान् ० ।- "भिक्षुओ! एक दूसरेके शरीरसे रगळकर नहीं नहाना चाहिये, ० दुक्कट ० ।” 7 ८-० षड्वर्गीय भिक्षु म ल्ल क से नहाते थे। ० जैसे काम भोगी गृहस्थ । ० भगवान् ०।- "भिक्षुओ ! मल्ल क से नहीं नहाना चाहिये, • दुक्कट ०।" 8 ९-०उससमय एक भिक्षुको दाद (=कच्छुरोग) की बीमारी थी; मल्लक बिना उसे अच्छा न होता था। भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ रोगीको विना गढे म ल्ल क की ।" 9 १०-उस समय वुढ़ापेसे कमजोर एक भिक्षु नहाते वक्त स्वयं अपने शरीरको नहीं रगळ सकता था । भगवान्से यह बात कही ।- “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ दुक्का सि का (=कपळा ऐंठकर बनाया रगळनेका कोळा )- की।" 10 ११---उस समय भिक्षु पीठ रगळने में हिचकिचाते थे ।०।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ हाथसे रगळनेको।" II (२) श्राभूपण १--उस समय पड् वर्गीय भिक्षु वाली, पा मंग (=लटकन), कर्णमूत्र, कटिसूत्र, खडुआ, केयूर, हरताभरण, अंगूठी धारण करते थे । ० काम भोगी गृहस्थ । ० भगवान् ०।- "भिक्षुओ ! बाली, लटकन, कर्णसूत्र, कटिसूत्र, खडुआ, केयूर, हस्ताभरण, अंगूठीको धारण करना चाहिये, दुवकट ।" 12 पड्वर्गीय लंबे केश रखते थे। ० कामभोगी गृहस्थ । ० भगवान् ०।- (३) केश, कंधी दर्पण आदि १--"भिक्षुओ! लम्बे केश नहीं रखना चाहिये, जो रक्खे उमे दुक्कटका दोष है। दो मासके या दो अंगल (लम्बे केगों) की अनुमति देता हूँ।" 13 • पड्दगीय भिक्षु कोच्छ (=थकरी)ने केगोंको मॅवारते थे, फण (=कंघी)मे०, राभवी बंधीने, खली (मिले.) तेलने०, पानी (मिले) तेलने केगोंको चिकनाते थे। ० कामभोगी गन्ध । भगवान् ०।- "भियो! कोच. कंघी०, हापकी कंधोल, खली-नेल, पानी-नेलने केगोंको नहीं मॅवाग्ना - पूर्ण लगाकर गरीर पिसनेका लकटीका हाथ । 'पुरविन्द पपरके दूर्गको लाखो पिण्डी बांध गुल्टियाँ बनाई जाती थीं, जिससे नहाते बहरीको रगहा जाता था। महादी दादरो काटकर बनाया।