पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पात्र ५७१।१० [ ४२३ "आयुष्मान् महामौद्गल्यायन अर्हत् हैं, और ऋद्धिमान् भी जाइये आयुष्मान् मौद्गल्यायन ! इस पात्रको उतार लाइये। आपके लिये ही यह पात्र है।" "आयुष्मान् पिंडोल भारद्वाज अर्हत् हैं, और ऋद्धिमान् भी०।" तब आयुष्मान् पिंडोल भारद्वाजने आकाशमें उळकर, उस पात्रको ले, तीन बार राजगृहका चक्कर दिया। उस समय राजगृहके श्रेष्ठीने पुत्र-दारा-सहित हाथ जोळ, नमस्कार करते अपने घरपर खळे हो- "भन्ते! आर्य-भारद्वाज ! यही हमारे घरपर उतरें।" आयुष्मान् पिंडोल भारद्वाज राजगृहके श्रेष्ठीके मकानपर उतरे (प्रतिष्ठित हुए) । तब राजगृहके श्रेष्ठीने आयुष्मान् पिंडोल भारद्वाजके हाथसे पात्र लेकर, महार्घ खाद्यसे भरकर उन्हें दिया। आयुष्मान् पिंडोल भारद्वाज पात्र-सहित आराम (=निवास-स्थान) को गये । मनुष्योंने सुना- आर्य-पिडोल भारद्वाजने राजगृहके श्रेष्ठीके पात्रको उतार लिया । वह मनुष्य हल्ला मचाते आयुष्मान् पिंडोल भारद्वाजके पीछे पीछे लगे। भगवान्ने हल्लेको सुना, सुनकर आयुष्मान् आनन्दको संबोधित किया-"आनन्द ! यह क्या हल्ला-गुल्ला है ?" "आयुष्मान् पिं डोल भा रहा ज ने भन्ते ! रा ज ग ह के श्रेष्ठीके पात्रको उतार लिया। लोगोंने (इसे) सुना० । भन्ते! इसीसे लोग हल्ला करते आयुष्मान् पिंडोल-भारद्वाजके पीछे पीछे लगे हैं। भगवान् वही यह हल्ला है ।" तब भगवान्ने इसी संबंध में इसी प्रकरणमें, भिक्षु-संघको जमा करवा, आयुष्मान् पिंडोल भार- द्वाजसे पूछा- "भारद्वाज ! क्या तूने सचमुच राजगृहके श्रेष्ठीका पात्र उतारा ?" "सचमुच भगवान् भगवान्ने धिववारते हुए कहा- "भारद्वाज ! यह अनुचित है प्रतिकूल अ-प्रतिरूप, श्रमणके अयोग्य, अविधेय अकरणीय है । भारद्वाज ! मुवे लवळीके वर्तनेके लिये कैसे तू गृहस्थोंको उत्तर-मनुष्य-धर्म ऋद्धि-प्रातिहार्य दिखायेगा।...। भारद्वाज ! यह न अप्रसन्नोंको प्रसन्न करनेके लिये है।" (इस प्रकार) धिक्कारते (हार) धार्मिक कथा वह, भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ! गृहस्थोंको उत्तर-मनुप्य-धर्म ऋद्धि-प्रातिहार्य न दिखाना चाहिये, जो दिखाये उसको 'दुष्कृत'की आपत्ति। भिक्षुको ! इस पात्रको तोळ, टुकळा-टुकळाकर, भिक्षुओंको अंजन पीसनेवे लिये दे दो। भिक्षुओ ! लकळीका दर्तन न धारण करना चाहिये । ०'दुष्कृत' ।" "भिक्षुओ! सुवर्णमय पात्र न धारण करना चाहिये, रौप्यमय०, मणि-मय०, वैदुर्यमय०, स्प.टिकमय ०, कसमय, वाचमय, संगेका० सीसेका०, ताम्रलोह (तांबा) का०,...'दुष्कृत'...। जिओ ! लोहे के और मिट्टीवे.-दो पात्रोंकी अनुज्ञा देता हूँ।" 28 उस समय पात्र (=भिक्षापात्र) की पेंदी घिस जाती थी । भगवान्ने यह बात कही ।- "शिधुलो ! अनुमति देता हूँ, पात्रमंडल (पात्रके नीचे रखनेकी गेहुरी)की ।" 29 (क) निलम-उस समन पदीय भिक्षु मुनहले, पहले नाना प्रकारके पात्र-मंडलको Cr जैसे कामभोगी नुहन्ध ! भगवान्में यह बात कही।- कि मा. महले माना प्रभार पात्र-मंडलको नहीं धारण करना चाहिये, जो धारण नाका दोष हो । मिति देता हूँ और मीने इन दो प्रकार के पात्रमंडल की।"30 11