पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४८५

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७ 14 ४२४ ] ४-चुल्लवग्ग [ ५७१।१० "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ रेखा डालनेकी।" 31 ४-शिकन (बलि) पळ जाती थी।- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ म क र दंत (=मगरदन्ती खूटी) काटनेकी ।” 32 ५-उस समय पड्वर्गीय रूप (=मूर्ति) खींचे हुए, भित्तिकर्म किये (=रंगसे चित्र खींचे) चित्र (विचित्र) पात्र-मं ड ल को धारणकर सळकपर घूमते थे। लोग हैरान होते थे० । भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ! रूप खींचे हुए, रंगसे चित्र खींचे पात्र-मंडलको न धारण करना चाहिये, जो वारण करे उसे दुक्क ट का दोप हो। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ प्रकृति मंडल की ।" 33 ६–उस समय भिक्षु पानीसहित पात्रको सँभाल रखतेथे, पात्रमें दुर्गन्ध आने लगती थी। भग- वान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ! पानीसहित पात्रको नहीं रख छोड़ना चाहिये, जो रख छोळे उसे दुक्कटका दोष हो। भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ, धूप दिखलाकर पात्रको रखनेकी । 34 -पानी सहित पात्रको तपाते थे, पात्रमें दुर्गन्ध आती थी। भगवान्से यह बात कही । - "०पानीसहित पात्रको न तपाना चाहिये, ०दुक्कट ० । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, पानी खाली कर धूप दिखला पात्रको रखनेकी । 35 ८-०धूपमें पात्रको डाहते थे, पात्रका रंग विकृत होता है । ०-- "०धूपमें पात्रको नहीं डाहना चाहिये, दुक्कट० । अनुमति देता हूँ, मूहूर्तभर धूपमें रख पात्र- को रख देनेकी ।" 36 ९-० उस समय बहुतसे पात्र खुली जगहमें आधारके बिना रक्खे थे, बवंडरने आकर पात्रोंको तोळ दिया। भगवान्से यह बात कही।- '०अनुमति देता हूँ, पात्रके आधारकी।" 37 १०-०उस समय भिक्षु वारीपर पात्रको रखते थे, गिरकर पात्र टूट जाते थे। भगवान्मे यह बात कही ।- "भिक्षुओ! वारीपर पात्रको न रखना चाहिये, ०दुक्कट०।" 38 ११-उस समय भूमिपर पात्रको औंधा देते थे, पात्रोंकी वारी घिस जाती थी । भगवान् ।- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ, (नीचे) तृण विछानेकी।" 39 १२-तृणके बिछौनेको कीळे खा जाते थे। ०।- "०अनुमति देता हूँ, चो ल क (=पोतन)की ।" 40 १३-चो ल क को कीळे खा जाते थे । ०।-- "०अनुमति देता हूँ, पात्र-मा ल क (= घिडौंची? घळथही) की ।" 4I १४–पात्र-मालकसे गिरकर पात्र टूट जाते थे । ० ।- "० अनुमति देता हूँ, पात्र-कंडोलिका (=गेंळुल) की ।” 42 १५-पात्र-कंडोलिकासे पात्र घिस जाते थे । ०।- "०अनुमति देता हूँ, पात्रके थैले (=स्थविका) की।" 43 १६–संबंधक (=गर्दन वाँधनेका बंधन) न था । भगवान् ०।- 'अनुमति देता हूँ संबंधककी, और बाँधनेकी मुतलीकी ।" 44 १७-उस समय भिक्षु भीतकी खूटीपर, ना ग दन्त क (=थिदन्ती खूटी) पर भी पात्रको लटका देते थे, गिरकर पात्र टूट जाता था। ०।- 6 14