पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४९२

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५७१।१३ ] कठिन-चीवर [ ४२७ वाँधनेकी रस्सी, वाँधनेके सूतसे बाँधकर चीवरके सीनेकी ।" 70 सुत्तान्त रि का यें (=टाँके) बरावर न होती थी।- '०अनुमति देता हूँ, कलम्बक (=पटियाना)की।" 7I सूत टेढ़े हो जाते थे।- "०अनुमति देता हूँ मो घ सुत्त क ( लंगर)की।" 72 उस समय भिक्षु बिना पैर धोये क ठिन पर चढ़ ते थे, कठिन मैला हो जाता था। ० ।- 'विना पैर धोये कठिनपर नहीं जाना चाहिये, दुक्कट० 1" 73 उस समय भिक्षु गीले पैरों कठिनपर चढ़ जाते थे, कठिन मैला हो जाता था। ०।- "गीले पैरों कठिनपर नहीं चढ़ना चाहिये, दुक्कट०।" 74 उस समय भिक्षु पैरमें जूता पहिने कठिनपर चढ़ जाते थे, कठिन मैला हो जाता था। ०।- "०पैरमें जूता पहिने कठिनपर न चढ़ना चाहिये, ०दुक्कट०।" 75 (ग). मि ना व कैंची आ दि—उस समय भिक्षु चीवर सीते वक़्त अँगुलीसे पकळते थे, अँगुलियाँ रुक्ष (=खुर्दरी) हो जाती थीं । ०।- "अनुमति देता हूँ, प्रति ग्रह (=मिज़ाब) की।" 76 उस समय षड्वर्गीय भिक्षु सोना, रूपा (आदि) नाना प्रकारके प्रति ग्रह को धारण करते थे। जैसे कामभोगी गृहस्थ। ०।- "० सोना, रूपा (आदि) नाना प्रकारके परिग्रहको नहीं धारण करना चाहिये, ०दुक्कट० । भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ हड्डी,०१ शंखके (प्रतिग्रह) की।" 77 उस समय सत्य क (कैंची) और प्रति ग्रह (=मिज्राव) दोनों खो जाते थे । ०।- "अनुमति देता हूँ, आवेसन-वित्यक (=सियनी)की।" 78 आवेसन-वित्थक उलझ जाता था। ०।- "०अनुमति देता हूँ, प्रति ग्रह की थैलीकी।" 79 कंधे (पर थैलीको लटकाने) का बंधन न था। ०।- "०अनुमति देता हूँ, कंधेपर वाँधनेके सूतकी।" 80 (घ). क ठिन शा ला-उस समय भिक्षु खुली जगहमें चीवर सीते थे। भिक्षु सर्दीसे भी तक- लीफ़ पाते थे, गर्मीसे भी। ०।- "०अनुमति देता हूँ कठिनशालाकी, कठिन-मंडपकी।" 81 कठिनशाला नीची कुर्सीकी थी, पानी भर जाता था। ०।- "०अनुमति देता हूँ, कुर्सीके ऊँची बनानेकी।" 82 चुनावट गिर जाती थी।- "०अनुमति देता हूँ, ईंट, पत्थर और लकळी इन तीनकी चुनाईकी।" 83 चढ़नेमें दुःख पाते थे ।- "०अनुमति देता हूँ, ईट, पत्थर और लकळी इन तीन प्रकारकी सीढ़ीकी।" 84 चढ़ते वक्त गिर जाते थे।- "अनुमति देता हूँ आलम्वन-वाहकी।” 85 ( ५ देखो चल्ल० ५११२ (२) पृष्ठ ४२६ ।