पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४९३

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४२८ ] ४-चुल्लवग्ग [ ५७१।१५ कठिनशालामें तृण-चूर्ण गिर जाता था।- '०अनुमति देता हूँ, ओगुम्बन (=लेवारना) करके सफ़ेद, काला, गेझसे रँगने, माला, लता, मकरदन्त, पाँच पाटीके चीवरके वाँस, चीवरकी रस्सीकी।" 86 उस समय भिक्षु चीवर सीकर क ठिन (=फट्टा) को वहीं छोळ चले जाते थे, गिरकर कठिन टूट जाता था। ०।- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ, भीतकी खूटीपर नागदन्त (=थिदन्ती खूटी) पर लटकाने- की।" 87 २-वैशाली तव भगवान् रा ज गृह में इच्छानुसार विहारकर जिधर वै शा ली है, उधर त्रारिकाके लिये चल पळे । उस समय भिक्षु सूई भी, सत्थक (=कैंची) भी, भैपज्य भी पात्रमें लेकर जाते थे। ०।- (१४) थैलो 11 61 11 "०अनुमति देता हूँ, भैषज्यकी थैली (=स्थविका)की।" 88 कंधे (पर लटकानेका) का बंधन न होता था।-- "० अनुमति देता हूँ, कंधेके बंधनकी, वंधनके सूतकी।" 89 उस समय एक भिक्षु कायबंधन (=कमरबंद) से जूतेको बाँध गाँवमें भिक्षाके लिये गया। एक उपासकका शिर वंदना करते वक़्त जूतेसे लग गया। वह भिक्षु गुम हो गया। तब उस भिक्षुने आराममें जा भिक्षुओंसे यह बात कही। भिक्षुओंने भगवान्से यह बात कही।- "०अनुमति देता हूँ, जूता (रखने) की थैलीकी।" 90 कंधे (पर लटकानेका) बंधन न होता था।- "०अनुमति देता हूँ, कंधेके वंधनकी, बंधनके सूतकी।" 91 (१५) जलछक्का उस समय रास्तेमें (चलते) पानी अकल्प्य (=व्यवहारके अयोग्य था, और) जलछरका (=परिस्रावण) न था। ०।- "०अनुमति देता हूँ, जलछक्केकी।" 92 चोलक (=कपळा) ठीक न आता था।- "०अनुमति देता हूँ (लकळीके मेखलेमें मढ़कर बने) कलछी जैसे जलछक्केकी।" 95 चोळकसे काम न चलता था।- " अनुमति देता हूँ धर्मकरक (= गळुए) की।” 94 उस समय दो भिक्षु को म ल देशमें रास्ते में जा रहे थे। एक भिक्षु अनाचार (=ठीक आचार न ) करता था, दूसरे भिक्षुने उस भिक्षुसे यह कहा- "आदुस ! मन ऐसा कर, यह विहित नहीं है।" उसने उसके प्रति गाँठ बाँध ली। तब प्याममे पीळिन हो उन भिक्षने गाँठ बाँध लिये भिक्षुने यह कहा- "आवम ! मुझे जलछक्का दो, पानी पिऊँगा।" गाँठ बाँधे भिक्षने न दिया। बह भिक्ष प्यामके मारे मर गया। तब उम भिक्षुने आगममें जा भिक्षुओने वह बात कही।- "क्या आवम ! माँगनेपर तूने जलयका नहीं दिया?" " 14