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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४९९

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४३४ ] ४-चुल्लवग्ग [ ५७२ "०अनुमति देता हूँ, गंधको ग्रहणकर किवाळमें पाँच अंगुलियोंके छाप (=पंचाँगुलिक) देनेको, और फूलोंको ग्रहण कर विहारके एक ओर रख देनेकी।" 172 उस समय संघको न म त क (=वस्त्र-खंड) मिला था।- '०अनुमति देता हूँ, नमतककी।” 173 तव भिक्षुओंको यह हुआ-'क्या नमतकका इस्तेमाल (=अधिष्ठान) करना चाहिये, या विकल्प (=वारीसे इस्तेमाल) करना चाहिये ?' "भिक्षुओ! नमतकका न अधिष्ठान करना चाहिये, न विकल्प करना चाहिये।" 174 उस समय पड़ व र्गीय भिक्षु आसिक्तकोपधान (=ताँबे चाँदीके तारोंसे खचित तकिये) को इस्तेमाल करते थे 0-जैसे कामभोगी गृहस्थ 10- "भिक्षुओ! आसिक्त-उपधानको नहीं इस्तेमाल करना चाहिये,० दुक्कट ०।" 175 उस समय एक भिक्षु रोगी था, वह भोजन करते वक्त हाथमें पात्र न रख सकता था।०- "०अनुमति देता हूँ, म लोरिक (=आधार-डंडेके आधार) की।" 176 उस समय पड् वर्गीय भिक्षु एक बर्तनमें खाते थे, एक प्याले में भी पीते थे, एक चारपाईपर भी लेटते थे, एक विछौने पर भी लेटते थे, एक ओढ़नेमें भी लेटते थे। एक ओढ़ने-बिछौनेमें भी लेटते थे। लोग हैरान० होते थे-जैसे कामभोगी गृहस्थ ।०- "भिक्षुओ! एक वर्तनमें नहीं खाना चाहिये, एक प्याले में नहीं पीना चाहिये, एक चारपाई पर नहीं लेटना चाहिये, एक बिछौनेपर नहीं लेटना चाहिये, एक ओढ़नेमें नहीं लेटना चाहिये, एक ओढ़ने-विछीनेमें नहीं लेटना चाहिये । जो खाये० लेटे, उसे दुक्कटका दोप हो।" 177 (६) वड्ढ लिच्छवीके लिये पात्र ढाँकना उस समय व ढ लिच्छ वी मे त्ति य और भुम्म ज क भिक्षुओंका मित्र था। तब व इतु लिच्छवी जहाँ मेत्तिय भुम्मजक भिक्षु थे, वहाँ गया । जाकर मेत्तिय भुम्मजक भिक्षुओंमे यह बोला- "आर्यो ! वन्दना करता हूँ।" ऐसा कहनेपर मेत्तिय भुम्मजक भिक्षु नहीं बोले । दूसरी बार भी वढ लिच्छवीः । तीसरी बार भी वड्ढ लिच्छवी० यह बोला- "आर्यो ! वन्दना करता हूँ।" तीसरी बार भी मेनिय और भुम्मजक भिक्षु नहीं बोल । "क्या मैंने आर्योका अपगध किया ? क्यों आर्य मुझने नहीं बोल रहे हैं ? "क्योंकि आदम बढ़ ! दर्भ मल्ल पुत्र' द्वारा हमें मताये जाते देवकर भी तुम पर्वाह नहीं करते।" "(नो) आर्यो! मैं क्या करें ?" "आबुन दट ! यदि तुम चाहो, तो आजही भगवान् आयुष्मान् दर्भमल्लपुत्रको नशा (निवाल) देंगे।" "आर्यो ! मैं क्या कर ! मैं क्या कर सकता हूँ?" "आओ आवन बढ़ ! दहां भगवान् हैं वहां जाकर भगवान्ने यह कहो-- . !