14 14 ५७२।५ ] आसन, शय्या [ ४३३ उदपान-शालामें तिनकेका चूरा गिरता था ।- '०अनुमति देता हूँ, ओगुम्बनकर०१ पंचपटिका, चीवर (टाँगने) के वाँस रस्सीकी।" 156 उदपान (=कुआँ) ढंका न होता था, तिनकेका चूरा गिरता था ।- "०अनुमति देता हूँ, पिहान (पिधान, ढक्कन) की।" 157 पानीका बर्तन न था- '०अनुमति देता हूँ, पानीके दोनके, पानीके कडारकी ।" 158 उस समय भिक्षु आराममें जहाँ तहाँ नहाते थे, उन्हें उससे आराममें कीचळ (=चिक्खल्ल) हो जाता था ।०-- "०अनुमति देता हूँ, चन्द नि का ( हौज)की।" 159 चन्दनिका ढंकी न होती थी।, भिक्षु नहानेमें लजाते थे- '० अनुमति देता हूँ, ईट, पत्थर या लकळी-तीन प्रकारके प्राकारोंसे घेरनेकी ।" 160 चन्दनिकामें कीचळ हो जाता था ।- '०अनुमति देता हूँ, ईट, पत्थर या लकळी इन तीन प्रकारके विछावकी।" 161 पानी लग जाता था।- "०अनुमति देता हूँ, पानीकी नालीकी।" 162 उस समय भिक्षुओंके शरीर भीगे रहते थे।०- "०अनुमति देता हूँ अंगोछे (उदकपुंछन चोलक) से सुखानेकी।" 163 उस समय एक उपासक संघके लिये पुष्करिणी बनवाना चाहता था |0-- '०अनुमति देता हूँ, पुष्करिणीकी।" 164 पुष्करिणीका कूल (=किनारा) गिर जाता था- "०अनुमति देता हूँ, ईट, पत्थर या लकळीकी चिनाईकी।".......165 '० अनुमति देता हूँ, सीढ़ीकी-- ।"........166 "०अनुमति देता हूँ, वाहीकी।" 167 पानी पुराना हो जाता था।- "०अनुमति देता हूँ, पानीकी नालीकी, पानीकी नहरकी।" 168 उस समय एक भिक्षु संघके लिये निल्लेख (=मुंडेरेवाला) जन्ताघर वनाना चाहता था।- "०अनुमति देता हूँ, निल्लेख जन्ताघरकी।" 169 (५) आसन, शय्या उस समय पड्वर्गीय भिक्षु चौमासे भर आसनी (=निपीदन) ले प्रवास करते थे "भिक्षुओ! चौमामे भर आसनी ले प्रवास न करना चाहिये, जो प्रवास करे, उसे दुक्कटका दोष हो।" 170 उस समय पड्वर्गीय भिक्षु फूल विखेरी शय्यापर सोते थे। लोग विहारमें घूमते वक्त (उसे) देखकर हैरान होते थे-जैसे कामभोगी गृहस्थ ।०- " भिक्षुओ ! फूल विखेरी शय्यापर न सोना चाहिये, टुक्कट ०।" ITI उस समय लोग गंधकी माला भी लेकर आराममें आते थे। भिक्षु संदेहमें पळ नहीं लेते थे।०- " 10- 16 'देखो पृष्ठ ४३० (107)। ५५
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