पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५११

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४८४ ] ४-चुल्लवग्ग [ ५७५३ "भिक्षुओ ! कछनी नहीं काछनी चाहिये, ० दुक्कट ०।" 228 ३--उस समय पड्वर्गीय भिक्षु गृहस्थोंकी भाँति कपळा ओढ़ते थे। 0-जैसे कामभोगी गृहस्थ।०-- "भिक्षुओ ! गृहस्थोंकी भाँति कपळा नहीं ओढ़ना चाहिये ० दुक्कट ० ।” 229 ! - ६५-बाझ ढोना, दतवन, आग-पशुसे रक्षा (१) बॅहगी उस समय पड्वर्गीय भिक्षु (कंधेके) दोनों ओर बहँगी (=काज) ले जाते थे 10-जैसे राजा- की मुंडवट्टी।- "भिक्षुओ ! दोनों ओर बहँगी नहीं ले जाना चाहिये, ° दुक्कट ० । भिक्षुओ ! आनुमति देता हूँ एक ओर वहँगीकी, बीचमें का ज की, सिरके भारकी, कंधके भारकी, कमरके भारकी, लटका कर (भार ले जानेकी)।" 230 (२) दतवन १--उस समय भिक्षु दतवन नहीं करते थे, मुंहसे दुर्गन्ध आती थी।-- "भिक्षुओ ! यह पाँच दतवन न करनेके दोप हैं--(१) आँखको नुकसान होता है; (२) मुग्वमें दुर्गन्ध आती है; (३) रस ले जानेवाली नाळियाँ शुद्ध नहीं होती; (४) कफ और पिन भोजनसे लिपट जाते हैं; (५) भोजनमें रुचि नही होती। भिक्षुओ ! यह पाँच दोप है दतवन न करनेमें । भिक्षुओ! यह पांच गुण है दतवन करनेमें-(१) आँखको लाभ होता है; (२) मुखमें दुर्गन्ध नहीं होती ; (३) रसवाहिनी नाळियाँ शुद्ध होती हैं; (४) कफ और पित्त भोजनसे नहीं लिपटते; (५) भोजनमें रुचि होती है। भिक्षुओ! यह पाँच गुण हैं दतवन करने में । "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ, दतवनकी।" २--उस समय पड्वर्गीय भिक्षु लम्बी दतवन करते थे, और उसीसे श्रामणे रोंको पीटते थे। ०- "भिक्षुओ ! लम्बी दतदन नहीं करनी चाहिये ; दुक्कट ० । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूं आठ अंगुल तककी दतवनकी। उममे श्रामणेरको नहीं पीटना चाहिये, दुक्कट ० ।” 232 ३--उस समय एक भिक्षुको अति म टा ह क (=बहुत छोटी) दतवन करनेमे कंटमें बिलग्ग (अँटक) हो गया। -- "अतिमटाहक दतबन न करनी चाहिये, दुक्कट ० । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, कमगे कम चार अंगुलकी दतवनकी ।” 233 (३) यागसे रक्षा १-उन नभय पकीय भिक्षु दाब (=बन) को लीपते थे । ०--जैसे दाबदाहा ( बन जलानेवाले) -- "भिक्षुनो ! दाबको नहीं लीपना चाहिये, दुवकट ।" 234

-उस समय विहार पोमे भर गया था। जंगल जलाते वक्त बिहार भी जल जाता था।:--

"अनुमति देता है. अंगदके जलाये जाने बवत अग्निने रोक और रक्षा करने की ।" 255 231