सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६७३।१] अनाथपिडिककी दीक्षा [ ४५९ से राजगृह गया। उस समय राजगृहक-श्रेष्ठीने संघ-सहित बुद्धको दूसरे दिनके लिये निमंत्रण दे रक्खा था! इसलिये उसने दासों और क म - करों को आज्ञा दी- "तो भणे! समयपर ही उठकर खिचळी पकाओ, भात पकाओ,। सूप (तेमन) तैयार करो...।" तब अनापिंडिक गृहपतिको ऐसा हुआ--“पहिले मेरे आनेपर यह गृह-पति, सब काम छोळकर मेरेही आव-भगतमें लगा रहता था। आज विक्षिप्तसा दासों और कमकरोंको आज्ञा दे रहा है-- "तो भणे ! समयपर०।" क्या इस गृहपतिके (यहाँ) आ वा ह होगा, या वि वा ह होगा, या महायज्ञ उपस्थित है, या लोग-बाग-सहित मगध-राज श्रेणि क बिम्बि सा र कलके लिये निमंत्रित किये गये हैं ?" तब राज-गृहक श्रेष्ठी दानों और कमकरोंको आना देकर, जहाँ अनाथ-पिंडिक गृहपति था, वहाँ आया। आकर अनाथ-पिडिक गृहपनिके साथ प्रति सम्मो द न (=प्रणामापाती) कर, एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे हथे, राजगृहक श्रेष्ठीको अनाथ-पिडिक गृहपतिने कहा--"पहिले मेरे आनेपर तुम गृहपति ! " "गृहपति ! मेरे (यहाँ) न आवाह होगा, न विवाह होगा, न ० मगध-राज० निमंत्रित किये गये हैं। बल्कि कल मेरे यहाँ बळा यज्ञ है । संघ-सहित वुद्ध (=बुद्ध-प्रमुख संघ) कलके लिये निमंत्रित हैं।" "गृहपति ! तू 'बुद्ध कह रहा है ? "गृहपति ! हाँ 'बुद्ध' कह रहा हूँ।" "गृहपति ! 'बुद्ध'" "गृहपनि ! हाँ 'बुद्ध'०।" "गृहपति ! 'बुद्ध ?" "गृहपति ! हाँ 'बुद्ध' ० ।" "गृहपति ! 'बुद्ध' यह शब्द (=बो प) भी लोकमें दुर्लभ है। गृहपति ! क्या इस समय भगवान् अर्हत् सम्यक्-नवुद्धके दर्शनके लिये जाया जा सकता है ?" "गृहपति ! यह समय उन भगवान् अर्हत् सम्यक्संबुद्धके दर्शनार्थ जानेका नहीं है।" तब अनाथ-पिडिक गृहपति--“अव कल समयपर उन भगवान् के दर्शनार्थ जाऊँगा" इस बुद्ध - वि प य क स्मृति को (मनमें) ले नो रहा । रातको सवेरा समझ तीन वार उठा। तव अनाथ- पिंडिक गृहपति जहाँ (गज गृह नगरका) शि व हा र था, (वहाँ) गया। अ- म नु प्यों (=देव आदि) ने द्वार खोल दिया। तब अनाथ - पि डि क०के नगरमे वाहर निकलते ही प्रकाश अन्तर्धान हो गया, अन्धकार प्रादुर्भत हुआ। (उने) भय, जळना और रोमांच उत्पन्न हुआ। वहींसे उसने लौटना चाहा। नब गिदक यक्षने अन्तर्धान होते हुये गब्द मुनाचा “मौ हाथी, सौ घोळे, (और) सौ खच्चरीके रथ, मणि डल पहिने नौ हजार कन्यायें एक पदके कथनके मोलहवें भागके मूल्यके बराबर भी नहीं है। चल गृहपनि ! चल गृहपति ! चलना ही श्रेयस्कर है. लौटना नहीं।" तद अनाथ-पिडिया गृहपतिका अंधकार नष्ट हो गया, प्रकाश उग आया। जो भय, जळता और गेमान उत्पन्न हुआ था, वह नष्ट हो गया । दूसरी बार भी० । तीसरी बार भी अनाथ-पिडिक गृहपतिको प्रभाग अन्तान हो गय० रोमांच उत्पन्न हुआ था, वह नष्ट हो गया। तब अनाथ-पिंडिक गृहपति जहाँ नीत-वन (है. कहाँ) गया। उन नभय भगवान् गन प्रत्यू प (=भिनमार) कालमें उठकर चौळेमें दाल रहे थे। भगवान्ने अनाप-पिडिक गृहपतिको दुग्ने ही आते हुये देना । देखकर चं क म ण (= ददलनेगी जगह)गे उतन्कर. विछे आननपर वैट गये। दैटकर अनाथ-पिडिक गृहपतिमे कहा-"आ उन नाप-पहिल गृहात यह (नोच! मगवान् मुझे नाम कर बुला रहे है" हृष्ट-उद ग्र