पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५३९

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४७२ ] ४-चुल्लवग्ग [ ६५४ ५ -यालवी (४) नवकर्म 1 + तब भगवान् की टा गि रि में इच्छानुसार विहारकर जिवर आलवी' है उबर चारिकाके लिये चल पळे । क्रमशः चारिका करते जहाँ आलवी है, वहाँ पहुँचे। वहाँ भगवान् आलवीके अग्गा ल व- चैत्त्यमें विहार करते थे। उस समय आलवीके निवासी भिक्षु इस प्रकारके न व क र्म ( गृह निर्माण) देते थे। पिंड रखने मात्रके लिये भी नवकर्म देते थे, भीत लीपने मात्रके लिये भी०, द्वार स्थापित करने मात्रके लिये भी०, अर्गल (=वेळा)की वट्टी करने मात्रके लिये भी०, आलोक-सन्धि (=रोशनदान करने०), सफ़ेदी करने०, काला रंग करने०, गेरूसे रंगने०, छाजन करने०, बाँधने, गण्डिका०, (=लकड़ी) रखने०, टूटे-फूटेकी मरम्मत करने०, परिभण्ड (=पेटी) करने मात्रके लिये भी नवकर्म देते थे। वीस वर्पके लिये भी०, तीस वर्पके भी०, ज़िन्दगी भरके लिये भी नवकर्म देते थे। धूएंके कालिख लगे विहारका भी नवकर्म देते थे। ०अल्पेच्छ० भिक्षु हैरान० होते थे-01- "०भिक्षुओ! पिंड रखने मात्रके लिये०१, धूयेंके कालिख लगे विहारका नवकर्म नहीं देना चाहिये ; जो दे उसे दुक्कटका दोष हो। भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ, न किये या वेठीकसे किये विहारका नवकर्म देनेकी। अड्ढयोग (अटारी) में काम देखकर साढ़े नौ वर्पके लिये नवकर्म देनेकी, वळे विहार या प्रासादमें (उस भिक्षुके) कामको देखकर दस वारह वर्पके लिये नवकर्म देने की।" 143 उस समय भिक्षु सारे विहारका नवकर्म देते थे। भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ! सारे विहारका नवकर्म नहीं देना चाहिये, ०दुक्कट०।” 144 उस समय भिक्षु एकको दो (इमारतों) का नवकर्म देते थे।०- "भिक्षुओ! एकको दोका नवकर्म नहीं देना चाहिये, ०दुक्कट०।" 145 उस समय भिक्षु न व क र्म ग्रहणकर दूसरे को वसाते थे।- "भिक्षुओ! नवकर्म ग्रहणकर दूसरेको न वसाना चाहिये, दुक्कट० ।” 146 उस समय भिक्षु नवकर्म लेकर सांघिक (विहार) को रोक रखते थे।- "भिक्षुओ! नवकर्म ग्रहणकर सांघिकको नहीं रोक रखना चाहिये, ०दुक्कट ० । अनुमति देता हूँ, एक अच्छी शय्या लेनेकी।" 147 उस समय भिक्षु सीमासे वाहर ठहरनेवालेको नवकर्म देते थे।- "०सीमासे वाहर ठहरनेवालेको नवकर्म नहीं देना चाहिये, दुक्कट०।" 148 उस समय भिक्षु नवकर्म ग्रहणकर सब कालके लिये रखते थे।०- "नवकर्म ग्रहणकर सब कालके लिये नहीं रख लेना चाहिये, ०दुक्कट ० । अनुमति देता हूँ वर्ण के तीन मासों भर रखनेकी, (वाकी) ऋतुओंके समय न रखनेकी।" 149 उस समय भिक्षु नवकर्म ग्रहणकर चले भी जाते थे, गृहस्थ भी हो जाते थे, मर भी जाते थे, धामणेर भी बन जाते थे, (भिक्षु-) शिक्षाको अस्वीकार करनेवाले भी बन जाते थे, अन्तिम अपग (पाराजिक) के अपराधी भी हो जाते थे, उन्मत्त भील, विक्षिप्त-चित्त भी०, वे द न ट्ट (=मूर्छा प्राप्त) भी०, आपत्ति (अपराध) के न देखनेमे उ क्षिप्त क भी०, आपत्तिके न प्रतिकार करनेसे उशिनक भी०, दुरी धारणाके न छोळनेसे उत्क्षिप्त क भी०, पण्डक भी०, चोरके साथ रहनेवाले भी०, तीथिका अरवल (कानपुरमे कन्नौजके रास्तेपर)।