पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५४०

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६०५७ ] आसन आदिकी सफ़ाई [ ४७३ के पास चले गये भील, तिर्यग्योनिमें चले गये भी०, मातृघातक भी०, पितृघातक भी०, अर्हद्घातक भी०, भिक्षुणी-दूपक भील, संघमें फूट डालनेवाले भी०, (बुद्धके शरीरसे) खून निकालनेवाले भी०, (स्त्री-पुरुष) दोनोंके लिंगवाले भी बन जाते थे। भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ ! यदि (कोई) भिक्षु नवकर्म ग्रहण कर चला जाये० (स्त्री-पुरुष) दोनोंके लिंगवाला वन जाये, तो जिसमें संघ (के काम) का हर्ज न हो, (वह काम) दूसरेको देना चाहिये। यदि भिक्षुओ ! नवकर्म ग्रहणकर ठीकसे (काम) न कर चला जाये दूसरेको देना चाहिये। यदि भिक्षुओ! नवकर्म ग्रहणकर उसे पूरा करके चला जाये तो वह उसीका (काम) है। यदि भिक्षुओ! नवकर्म ग्रहणकर पूरा करके गृहस्थ हो जाये, मर जाये, श्रामणेर बन जाये, शिक्षाको अस्वीकार करनेवाला०, अन्तिम अपराध का अपराधी हो जाये तो संघ मालिक है। यदि० पूरा करके उन्मत्त०, विक्षिप्त चित्त०, वेदनट्ट०,०उत्क्षि- प्तक बन जाये, तो वह उसीका (काम) है । यदि० पूरा करके पंडक०,० (स्त्री-पुरुप) दोनोंके लिंगवाला वन जाये, तो संघ मालिक है।" 150 (५) विहारके सामानका हटाना उस समय भिक्षु एक उपासकके विहारमें उपयुक्त होनेवाले शय्या, आसनको दूसरे स्थानपर (ले जाकर) इस्तेमाल करते थे। वह उपासक हैरान होता था--कैसे भदन्त (लोग) दूसरे स्थानके इस्तेमाल करने के सामान) को दूसरे स्थानपर इस्तेमाल करेंगे। "भिक्षुओ ! दूसरे स्थानके इस्तेमाल करने (के सामान) को दूसरे स्थानपर नहीं इस्तेमाल करना ISI उस समय भिक्षु उ पो स थ के स्थानपर भी आसन ले जानेमें संकोच करते थे, भूमिपर ही बैठते चाहिये, दुक्कट० थे। ०-- “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, कुछ समयके लिये ले जानेकी।" 192 उस समय संघका (एक) महाविहार गिर रहा था भिक्षु संकोच करते शय्या, आसनको नहीं हटाते थे।०-- "०अनुमति देता हूँ, रक्षाके लिये (सामानको) हटानेकी।" 153 (६) वस्तुओंका परिवर्तन उस समय शय्या-आसनके कामका एक बहुमूल्य कम्बल संघको मिला था।- "अनुमति देता हूँ, फातिकम्म (सुभरता) के लिये (उमे) वदल लेने की।” 154 उस समय शय्या-आसनके कामका एक बहुमूल्य दुस्स (=थान) संघको मिला था।-- "अनुमति देता हूँ, फा ति क म्म के लिये (उसे) बदल लेनेकी।" 155 (७) श्रासन, भीतको साफ रखना उस समय संघको भालूका चमळा मिला था।- 'अनुमति देता हूँ पापोश (=पाद-पुंछन) वनानेकी।" 156 चकली (=! ) मिली थी।- " अनुमति देता हूँ, पापोरा बनानेकी।" 157 बोळक (चोलक-लत्ता) मिला था।- " अनुमति देता हूँ, पापोरा बनानेकी ।" 158 उन नमय निक्षु दिना धोये पैरोंने टाय्या-आमनपर चढ़ने धे, गय्या-आमन मैले होते थे-