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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५४५

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४७८ ] ४-चुल्लवग्ग [७६१।२ ! "अम्मा! मैं घरसे वेघर हो प्रव्रजित होना चाहता हूँ, मुझे.. .प्रवज्याके लिये आज्ञा दे।" ऐसा कहनेपर अनुरुद्ध शाक्यकी माताने अनुरुद्ध शाक्यसे कहा-- "तात ! अनुरुद्ध ! तुम दोनों मेरे प्रिय=मनआप-अप्रतिकूल पुत्र हो; मरनेपर भी (तुमसे) अनिच्छुक नहीं होऊँगी, भला जीते जी. . .प्रव्रज्याकी स्वीकृति कैसे दूंगी?' दूसरी बार भी अनुरुद्ध शाक्यने मातासे यों कहा। तीसरी बार भी। उस समय भद्दिय नामक शाक्य-राजा शाक्योंपर राज्य करता था, (वह) अनुरुद्ध शाक्यका मित्र था। तव अनुरुद्ध शाक्यकी माताने (यह सोच)—यह भद्दिय (=भद्रिक) शाक्यराजा अनुरुद्धका मित्र शाक्योंपर राज्य करता है, वह घर छोळ. . .प्रबजित होना नहीं चाहेगा और अनुरुद्ध शाक्यसे कहा- "तात ! अनुरुद्ध यदि भ हि य शाक्य-राजा प्रबजित हो, तो तुम भी प्रबजित होना।" तव अनुरुद्ध शाक्य जहाँ भद्दिय शाक्य-राजा था, वहाँ गया; जाकर भद्दिय शाक्य-राजासे बोला- "सौम्य ! मेरी प्रव्रज्या तेरे अधीन है।" "यदि सौम्य ! तेरी प्रव्रज्या मेरे अधीन है, तो वह अधीनता मुक्त हो।...। सुखसे प्रव्रजित होओ।" "आ सौम्य दोनों प्रवजित होवें।" "सौम्य ! मैं प्रव्रजित होनेमें समर्थ नहीं हूँ। तेरे लिये और जो मैं कर सकता हूँ, वह करूंगा। तू प्रव्रजित हो जा।" "सौम्य ! माताने मुझे ऐसा कहा है-यदि तात अनुरुद्ध ! भद्दिय शाक्य-राजा० प्रबजित हो, तो तुम भी प्रबजित होना। सौम्य ! तू यह बात कह चुका है-'यदि सौम्य ! तेरी प्रव्रज्या मेरे अधीन है, तो वह अधीनता मुक्त हो।...। सुखसे प्रवजित होओ।' आ सौम्य ! दोनों प्रव्रजित होवें।" उस समयके लोग सत्यवादी सत्य-प्रतिज्ञ होते थे। तव भद्दिय शाक्य-राजाने अनुरुद्ध शाक्यको ! ! यों कहा- ( ० 17 मास० 1 1 41 "सौम्य ! सात वर्प ठहर । सात वर्ष बाद दोनों० प्रबजित होवेंगे।" "सौम्य ! सात वर्प बहुत चिर है। मैं इतनी देर नहीं ठहर सकता।" "सौम्य ! छ वर्प ठहर०।" "०नहीं ठहर सकता।" "०पाँच वर्प०"। "चार वर्प०"। “तीन वर्प०"। "०दो वर्प०"। "०एक वर्ष०"। "०सात "०छ मास० "०पाँच मास०"। "०चार मास"। "०तीन मास० "०दो मास०"। ०एक मास०"। "०आध मास वाद दोनों० प्रबजित होंगे।" "सौम्य ! आध मास बहुत चिर है। मैं इतनी देर नहीं ठहर सकता।" "सौम्य ! सप्ताहभर ठहर, जिसमें कि मैं पुत्रों और भाइयोंको राज्य सौंप दूं।" "सौम्य ! सप्ताह अधिक नहीं है, ठहरूँगा।" (२) उपालि भी साथ तब भ हि य गाक्य-राजा, अनु रु द्ध, आ नन्द, भृगु, कि म्बि ल, दे व दत्त और सातवाँ उ पा लि हजाम, जैसे पहिले चतुरंगिनी-मेना-महित बगीचे जाते थे, वैसे ही चतुरंगिनी-सेना-महित निकले। वह दूर तक जा, मेनाको लौटा, दुसरेके राज्यमें पहुँच, आभूपण उतार, उपरनेमें गॅठरी बाँध, उपाधि हजामने यों बोले-