पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५४६

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७१११२ ] देवदत्त [ ४७९ "भणे ! उपालि ! तुम लौटो। तुम्हारी जीविकाके लिये इतना काफ़ी है।" तब उपालि नाईको लौटते वक़्त यों हुआ-- "शाक्य चंड (=क्रोधी) होते हैं। 'इसने कुमार मार डाले', (समझ) मुझे मरवा डालेंगे। यह राजकुमार हो, प्रबजित होंगे, तो फिर मुझे क्या ?" उसने गँठरी खोलकर, आभषणोंको वृक्षपर लटका “जो देखे, उसको दिया, ले जाय" कह, जहाँ शाक्य-कुमार थे, वहाँ गया। उन शाक्य-कुमारोंने दूरसे ही देखा कि उपालि नाई आ रहा है। देखकर उपालि नाईसे कहा- "भणे! उपालि! किसलिये लौट आये?" "आर्य-पुत्रो! लौटते वक़्त मुझे यों हुआ--शाक्य चंड होते हैं। इसलिये आर्य-पुत्रो ! मैं गठरी खोलकर, आभूषणोंको वृक्षपर लटका०, वहाँसे लौटा हूँ।" "भणे ! उपालि ! अच्छा किया, जो लौट आये। शाक्य चंड होते हैं। 'इसने कुमार मार डाले' (कह) तुझे मरवा डालते।" तव वह शाक्य-कुमार उपालि हजामको ले वहाँ गये, जहाँ भगवान् थे। जाकर भगवान्की वन्दनाकर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठकर उन शाक्य-कुमारोंने भगवान्से कहा- "भन्ते ! हम शाक्य अभिमानी होते हैं। यह उ पा लि नाई, चिरकाल तक हमारा सेवक रहा है। इसे भगवान् पहिले प्रबजित करायें। (जिसमें) हम इसका अभिवादन, प्रत्युत्थान (=सम्मानार्थ खळा होना), हाथ जोळना...करें। इस प्रकार हम शाक्योंका शाक्य होनेका अभिमान मदित होगा।" तब भगवान्ने उपालि हजामको पहिले प्रव्रजित कराया, पीछे उन शाक्य-कुमारोंको। तव आयुष्मान् भद्दियने उसी वर्षके भीतर तीनों विद्याओंको साक्षात् किया। आयुष्मान् अनुरुद्धने दिव्य- चक्षुको० । आ० आनन्दने सोतापत्ति फलको०। दे व दत्त ने पृथग्जनों(=अनार्यो)वाली ऋद्धिको सम्पादित किया। उस समय आयुष्मान् भद्दिय अरण्यमें रहते हुए भी, पेळके नीचे रहते हुए भी, शून्य गृहमें रहते हुए भी, वरावर उदान कहते थे-": -"अहो ! सुख !! अहो! सुख ! !" बहुतसे भिक्षु जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये। जाकर भगवान्को अभिवादनकर० एक ओर बैठ, उन भिक्षुओंने भगवान्से कहा- "भन्ते ! आयुष्मान् भद्दिय अरण्यमें रहते० । निःसंशय भन्ते ! आयुष्मान् भद्दिय बे-मनसे ब्रह्मचर्य चरण कर रहे हैं। उसी पुराने राज्य-सुखको याद करते अरण्यमें रहते।" तब भगवान्ने एक भिक्षुको संबोधित किया—'आ, भिक्षु ! तू जाकर मेरे वचनसे भद्दिय भिक्षु को कह---आवुस भद्दिय ! तुमको शास्ता बुलाते हैं।" "अच्छा" कह, वह भिक्षु जहाँ आयुष्मान् भद्दिय थे, वहाँ गया। जाकर आयुष्मान् भद्दियसे बोला-"आवस भद्दिय ! तुम्हें शास्ता बुला रहे हैं।" "अच्छा आवुस !" कह उस भिक्षुके साथ (आयुप्मान् भट्टिय) जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये । जाकर भगवान्को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे हुए आयुप्मान् भद्दियको भगवान्ने कहा- "भद्दिय ! क्या सचमुच तुम अरण्यमें रहते हुए भी० उदान कहते हो।" "भन्ते! हाँ!' "भदिय ! किस दातको देन अरण्यमें रहते हुये भी।" "भन्ने ! पहिले राजा होते वक्त अन्तः-पुरके भीतर भी अच्छी प्रकार रक्षा होती रहती थी। मगर-भीतर भी । नगर-बाहर भी० । देग-भीतर भी० । देवा-बाहर भी० । मो मैं भन्ते ! इस प्रकार