पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५५३

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४-चुल्लवग्ग -- ४८६ ] [ 0312 तव भगवान्ने ऊपर देख देवदत्तसे यह कहा- "मोघ पुरुप ! तूने बहुत अ-पुण्य (=पाप) कमाया, जो कि तूने द्वेप-युक्त चित्तसे तथागतका रुधिर निकाला।" तव भगवान्ने भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ ! देवदत्तने यह प्रथम आनन्तर्य (=मोक्षका बाधक) कर्म जमा किया, जोकि द्वेप-युक्त चित्तसे वधके चित्तसे तथागतका रुधिर निकाला।" (४) तथागतकी अकाल मृत्यु नहीं भिक्षुओंने सुना कि देवदत्तने बध करनेकी कोशिश की, तो वह भिक्षु भगवान्के विहार (=निवास- स्थान) के चारों ओर टहलते ऊँची आवाज़से वळी आवाज़मे भगवान्की रक्षा आवरण-गुप्तिके लिये स्वाध्याय (=सूत्र-पाठ) करते थे। भगवान्ने ऊँची आवाज बळी आवाजके स्वाध्यायके शब्दको सुना। भगवान्ने आयुष्मान आनंदको संबोधित किया- "आनन्द ! यह क्या ऊँची आवाज़, वळी आवाज़, स्वाध्याय शब्द है ?' "भन्ते ! भिक्षुओंने सुना कि देवदत्तने बध करनेकी कोशिश की० स्वाध्याय कर रहे हैं। वही यह भगवान् स्वाध्याय शब्द है।" "तो आनन्द ! मेरे वचनसे उन भिक्षुओंको कहो-- 'आयुष्मानोंको शास्ता बुला रहे हैं।" "अच्छा भन्ते ! "-- (कह) भगवान्को उत्तर दे, आयुष्मान् आनन्द, जहाँ वह भिक्षु थे, वहाँ गये। जाकर उन भिक्षुओंसे यह वोले- "आवुसो! आयुष्मानोंको शास्ता बुला रहे हैं।" "अच्छा आवुस !"- (कह) आयुप्मान् आनन्दको उत्तर दे, वह भिक्षु जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये । जाकर भगवान्को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे उन भिक्षुओंगे भग- वान्ने यह कहा- "भिक्षुओ! इसका स्थान नहीं, यह संभव नहीं कि दूसरेके प्रयत्नसे तथागतका जीवन छुटे; भिक्षुओ! तथागत (दूसरेके) उपक्रमसे नहीं (अपनी मौतसे) परिनिर्वाणको प्राप्त हुआ करते हैं । "भिक्षुओ! लोकमें यह पाँच (प्रकारके) (गुरु) (=शास्ता) होते हैं० २ । "भिक्षुओ ! गील-शुद्ध होनेपर--मैं शुद्ध शीलवाला हूँ,०१ (५) ०मैं शुद्ध ज्ञान दर्शनवाला हूँ । "भिक्षुओ! इसका स्थान नहीं० तथागत (दूसरेके) उपक्रमसे नहीं (अपनी मौतसे) परि- निर्वाणको प्राप्त हुआ करते हैं। भिक्षुओ! जाओ तुम अपने अपने विहारको, तथागतोंकी रक्षाकी आवश्यकता नहीं ।” (५) देवदत्तका वुद्धपर नालागिरि हाथीका छुळवाना उन समय राजगृहमें ना ला-गि रि नामक मनुष्य-घातक, चंड हाथी था। देवदत्तने गजगृहा। प्रवेगकर हथमारमें जा फीलवान्ने कहा- जब श्रमण गौतम इम मळकपर आये, नब तुम नाला-गिरि हाथीको खोलकर, दम गलक पर कर देना।" "अच्छा भन्ते !" १ ! 44 देखो ७९५ (पृष्ट ४८२) ।