४८८] हम श्रमण ४-चुल्लवग्ग ( 57912 अल्पेच्छ० भिक्षु० भगवान्से बोले ।- "सचमुच, भिक्षुओ ! o?" "(हाँ) सचमुच भगवान् ! ० फटकारकर भगवान्ने भिक्षुओंको संबोधित किया- "तो भिक्षुओ ! कुलोंमें भिक्षुओंके लिये तीन (प्रकार) के भोजनका विधान करता हूँ, तीन मतलबसे--(१) कुटिल (=दुम्मंकू) व्यक्तियोंके निग्रहके लिये; (२) अच्छे भिक्षुओं के ठीकसे विहारके लिये; (३) (और जिसमें कि)बुरी नियतवाले पक्ष या संघमें फूट नडाल दें। कुलोंके अनुदर्शनके लिये धर्मानुसार गण-भोजन (=जमातका भोज) कराना चाहिये।" (७) संघमें फूट डालना तब देवदत्त जहाँ को का लि क क ट मो र-ति स्स क, और खंड दे वी -पु त्र समुद्र दत्त थे, वहाँ गया। जाकर...बोला- "आओ आवुसो! हम श्रमण गौतमका संघ-भेद (=फूट) चक्रभेद करें। आओ.. गौतमके पास चलकर पाँच वस्तुएँ माँगें।... -'अच्छा हो भन्ते ! भिक्षु (१) ज़िन्दगी भर आरण्यक रहें, जो गाँवमें वसे, उसे दोप हो। (२) ज़िन्दगी भर पिंडपातिक (=भिक्षा माँगकर खानेवाले) रहें, जो निमंत्रण खाये, उसे दोप हो। (३) ज़िन्दगी भर पांसुकूलिक (=फेंके चीथळे सीकर पहननेवाले) रहें, जो गृहस्थके (दिये) चीवरको उपभोग करे, उसे दोष हो। (४) जिन्दगी भर वृक्ष-मूलिक (=वृक्ष के नीचे रहनेवाले) रहें, जो छायाके नीचे जाये, वह दोषी हो। (५) ज़िन्दगी भर मछली मांस न खाये, जो मछली मांस खाये , उसे दोप हो।, श्रमण गौतम इसे नहीं स्वीकार करेगा। तव हम इन पाँच बातोंस लोगोंको समझायेंगे।... तव देवदत्त परिपद्-सहित जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया । जाकर भगवान्को अभिवादनकर, एक ओर बैठा। एक ओर बैठे देवदत्तने भगवान्से कहा- ..अच्छा हो भन्ते ! भिक्षु (१) जिन्दगी भर आरण्यक हों।" "अलम् देवदत्त ! जो चाहे आरण्यक हो, जो चाहे ग्राममें रहे। जो चाहे पिंडपातिक हो, जो चाहे निमंत्रण खाये। जो चाहे पांसुकूलिक हो, जो चाहे गृहस्थके (दिये) चीवरको पहने । देवदत्त ! आठ मास मैंने वृक्षके नीचे वास (वृक्ष-मूल-शयनासन) की अनुज्ञा दी है। अदृष्ट', अ-श्रुत,अ-परिशंकित,' इस तीन कोटिसे परिशुद्ध मांसकी भी मैंने अनुज्ञा दी है ।... तव देवदत्त-भगवान इन पाँच वातोंकी अनुमति नहीं देते हैं-(सोच) हर्षित-उदग्र हो परिपद्-सहित आसनसे उठ भगवान्को अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर चला गया। तब दे व दत्त परिपद्-सहित राजगृहमें प्रवेशकर (उन) पाँच बातोंको ले लोगोंको समझाता -'आवुसो ! हमने श्रमण गौतमके पास जा पाँच वातोंकी याचना की-भन्ते ! भगवान् अनेक प्रकार से अल्पेच्छ, संतुष्ट, सल्लेख (तप), धुत (=त्यागमय रहन सहन)'; प्रासादिक, अपचय (=त्याग) वीर्या- रम्भ (उद्योग) के प्रशंसक हैं । भन्ते ! यह पाँच बातें अनेक प्रकारसे अल्पेच्छता० वीर्यारम्भता के लिये हैं। अच्छा हो भन्ते ! भिक्षु (२) जिन्दगी भर आरण्यक रहे० । इन पाँच बातोंकी श्रमण गौतम अनु- मति नहीं देता। और हम इन पाँचों बातोंको लेकर वर्तते हैं।" वहाँ जो आदमी अश्रद्धालु अप्रसन्न, 11 14 - था- २'मेरे लिये मारा गया'--यह मुना न हो। १ 'मेरे लिये मारा गया यह देखा न हो। ३ 'मेरे लिये मारा गया'--यह सन्देह न हो।
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