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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५५६

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७१२।८ ] देवदत्तका संघसे अलग होजाना [ ४८९ दुर्बुद्धि थे वह ऐसा बोलते थे—'यह शाक्यपुत्रीय श्रमण अवधूत, सल्लेखवृत्ति (-तपस्वी) हैं। श्रमण गौतम बटोरू है, बटोरने के लिये चेताता है । और जो मनुष्य श्रद्धालु प्रसन्न, पंडित, बुद्धिमान् थे, वह हैरान होते थे—'कैसे देवदत्त, भगवान्के संघ भेदके लिये, चक्रभेदके लिये कोशिश कर रहा है।' भिक्षुओंने उन मनुष्योंके हैरान होनेको सुना--01 तब उन भिक्षुओंने भगवान्से यह बात कही।- "सचमुच भिक्षुओ! ०?" "(हाँ) सचमुच भगवान् !" "वस देवदत्त ! तुझे संघमें फूट डालना मत पसंद होवे। देवदत्त ! संघ-भेद भारी (अपराध) है । देवदत्त ! जो एकमत संघको फोळता है, वह कल्प भर रहनेवाले पापको कमाता है, कल्प भर नरक में पकता है । देवदत्त ! जो फूटे संघको मिलाता है, वह ब्राह्म (=उत्तम) पुण्यको कमाता है, कल्प भर स्वर्गमें आनन्द करता है । वस देवदत्त ! तुझे संघमें फूट डालना मत पसंद होवे, देवदत्त ! संघभेद भारी (अप- राध) है।" तब आयुष्मान् आनन्द पूर्वाह्न समय पहिनकर पात्र-चीवर ले राजगृहमें भिक्षाके लिये प्रविष्ट हुये । देवदत्तने आयुष्मान् आनन्दको राजगृहमें भिक्षाचार करते देखा । देखकर जहाँ आयुष्मान् आनन्द थे, वहाँ गया, जाकर आयुष्मान् आनन्दसे यह वोला- "आजसे आवुस आनन्द ! में भगवान्से अलग ही भिक्षु-संघसे अलग ही उपोसथ करूँगा, अलग ही संघ-कर्म करूँगा।" तव आयुष्मान् आनन्द भोजनकर भिक्षासे निवृत्त हो जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये, जाकर भग- बान्वो अभिवादनकर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे आयुष्मान् आनन्दने भगवानसे यह कहा- "आज मैं भन्ते ! पूर्वाह्ण समय० राजगृहमें भिक्षाके लिये प्रवृप्ट हुआ।० अलग ही संघ-कर्म वरूँगा । भन्ते! आज देवदत्त संघको फोळेगा।" तब भगवान्ने इस बातको जान उसी समय इस उदानको कहा- "साधु (=भले मनुप्य) के साथ भलाई सु कर है, पापीके साथ भलाई दुप्कर है। पापीके साथ पाप सुकर है, आर्योके साथ पाप दुप्कर है" ।।(५)। द्वितीय भाणवार समाप्त (८) देवदत्तका संघसं अलग होजाना तव दे व दत्त ने उस दिन उपोसथ को आसनसे उठकर गलाका २ (बोटकी लकळी) पकळ- वाई--"हमने आवुनो! भ्रमण-गौतमको जाकर पाँच वस्तुएँ माँगी-०। उन्हें श्रमण गौतमने नहीं स्वीकार किया । सो हम (इन) पांच वस्तुओंको लेकर वतेंगे। जिम आयुप्मान्को यह पाँच बातें पसंद हो, वह गलाका ग्रहण करें।" उन समय वैशाली पाँच सौ व ज्जि पुत क नये भिक्षु अमली बातको न समझनेवाले थे। उन्होंने-'यह धर्म है, यह विनय है, यह वास्ताका गासन (=गुरुका उपदेग) है'-(मोच) गलाका ले ली। तब देवदत्त गंभको पोळ (=भेद) कर, पांच सौ भिक्षुओंको ले, जहाँ गयानीमने था वहाँको चल दिया। 'हाण चतुर्दशी या पूर्णिमा । 'दोट (मत पाली, छन्द) लेनेकी आमानीके लिये जसे आजकल पूजी (ट) चाती है, ने ही पूर्वकालने छन्द-गलारा दलती थी। ब्रह्मयोनि पर्वत (गया)।