पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५६०

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- ७३३२ ] संघ-भेदकी व्याख्या । ४९३ (१) संघ-राजीको व्याख्या "भन्ते ! संघ-राजी (संघमें पार्टी होना) संघ-राजी' कही जाती है; कैसे भन्ते ! संघ-राजी होती है, और संघ-भेद नहीं होता है; और कैसे भन्ते ! संघ-राजी भी होती है, संघ-भेद भी होता है ?" "उपालि ! (१) एक ओर एक होता है, एक ओर दो, (और) चौथा (भिक्षु) अनुश्रा व ण करता है, शलाका ग्रहण कराता है--'यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ताका शासन (=उपदेश) है, इसे ग्रहण करो, इसका व्याख्यान करो।' इस प्रकार उपालि! संघ-राजी होती है, किन्तु संघभेद नहीं होता । (२) एक ओर दो (भिक्षु) होते हैं, एक ओर दो, (और) पाँचवाँ (भिक्षु) अनुश्रावण करता है, शलाका ग्रहण कराता है-'यह धर्म है। इस प्रकार व्याख्यान करो'--इस प्रकार भी उपालि ! संघ-राजी होती है, किन्तु संघभेद नहीं होता। (३) एक ओर उपालि ! दो होते हैं, एक ओर तीन और छटा अनु श्रा व ण करता है, शलाका ग्रहण कराता है-'यह धर्म है। इस प्रकार व्याख्यान करो'- इस प्रकार भी उपालि ! संघ-राजी होती है, किन्तु संघभेद नहीं होता। (४) एक ओर उपालि ! तीन होते हैं, एक ओर तीन, और सातवाँ अनुश्रावण करता है, ०-०--इस प्रकार भी उपालि! संघ-राजी होती है, किन्तु संघ-भेद नहीं होता। (५) एक ओर उपालि ! तीन होते हैं, एक ओर चार, और आठवाँ अनुश्रावण करता है, o-o-इस प्रकार भी उपालि ! संघ-राजी होती है, किन्तु संघ-भेद नहीं होता। (६) एक ओर उपालि चार होते हैं, एक ओर चार और नवां अनुश्रावण करता है, 0--0---इस प्रकार उपालि ! संघ-राजी भी होती है संघ-भेद भी। उपालि ! नव (भिक्षुओंके होने) से या नवसे अधिक होनेसे यंघ-राजी भी होती है, संघ-भेद भी। उपालि ! न भिक्षुणी, संघमें भेद (=फूट) करती, हाँ भेदके लिये प्रयत्न कर सकती है। उपालि ! न गिक्ष मा णा, संघमें भेद करती, हाँ भेदके लिये प्रयत्न कर सकती है। न श्रामणेर० । ० न श्रामणेरी ० । ० न उपासक ० १ ० न उपासिका । उपालि ! अपराध- रहित (=प्रवृतस्थ) एक आवासवाले एक सीमामें स्थित भिक्षु संघ भेद करते हैं।" 5 (२) सङ्घ-भेदकी व्याख्या "भन्ते ! संघ-भेद संघ-भेद कहा जाता है; कैसे कितनेसे भन्ते ! संघ भिन्न (=फूटा हुआ) होता है ?" "उपालि ! जब भिक्षु (१) अधर्म (-बुद्धका जो उपदेश नहीं) को धर्म कहते हैं, (२) ध मं को अ-धर्म कहते है । (३) अ-विनयको वि न य कहते हैं, और (४) विनयको अ-विनय कहते हैं। (५) तथागतवे. अ-भापित अ-लपितको तथागतका भापित लपित कहते हैं; (६) तथागतके भापित, लपिनको तथागतका अ-भापित अ-लपित कहते हैं। (७) तथागतके अन्-आचीर्ण (आचरण न किये कामों) को ० आचीर्ण कहते हैं, (८) ० आचीर्णको ० अन्-आचीर्ण कहते हैं। (९) ० न विधान किये (: अ-प्रज्ञप्त) को ० प्रजप्त, (१०) ० प्रजप्तको ० अ-प्रनप्त कहते हैं। (११) अन्-आपत्ति ( :- जो अपराध नहीं ) को आपत्ति ० (१२) आपत्तिको अन्-आपत्ति कहते हैं । (१३) लघुक-आपत्ति 1. छोटे गिनं जानेवाले अपराध) को गुरुकः (=बळी) आपनि कहते हैं, (१४) गुरुक-आपत्तिको लात-आपनि कहते है। (१५) नावाप (=जिसके अतिग्वित भी आपनियाँ वची हैं)-आपत्तियोंको निग्दीप-आपनियां कहते है, (१६) निग्दोष-आपनियांको मावशेष-आपत्तियाँ कहते हैं। (१७) फोरमने कम पूट होनेपर नं-राडी और कोरम् पूरा होनेपर (उसे मंघ और तवकी) पारदो संघ-भेद एहते है। वी नामनि लेडर प्रताद जिन शब्दों में रखा जाता है उमे अनुप्रादण कहते हैं ।