पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५६२

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11 ०-०-इस प्रकार ७०३।२] संघ-भेदकी व्याख्या [ ४९३ (१) संघ-राजीकी व्याख्या "भन्ते ! संघ-राजी (=संघमें पार्टी होना) संघ-राजी' कही जाती है; कैसे भन्ते ! संघ-राजी होती है, और संघ-भेद नहीं होता है; और कैसे भन्ते ! संघ-राजी भी होती है, संघ-भेद भी होता है ? "उपालि ! (१) एक ओर एक होता है, एक ओर दो, (और) चौथा (भिक्षु) अनु श्रावण करता है, शलाका ग्रहण कराता है--'यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ताका शासन (उपदेश) है, इसे ग्रहण करो, इसका व्याख्यान करो।' इस प्रकार उपालि ! संघ-राजी होती है, किन्तु संघभेद नहीं होता । (२) एक ओर दो (भिक्षु) होते हैं, एक ओर दो, (और) पाँचवाँ (भिक्षु) अनुश्रावण करता है, शलाका ग्रहण कराता है-'यह धर्म है। इस प्रकार व्याख्यान करो'---इस प्रकार भी उपालि ! संघ-राजी होती है, किन्तु संघभेद नहीं होता। (३) एक ओर उपालि ! दो होते हैं, एक ओर तीन और छठा अनु श्रा व ण करता है, शलाका ग्रहण कराता है--'यह धर्म है। इस प्रकार व्याख्यान करो'- प्रकार भी उपालि ! संघ-राजी होती है, किन्तु संघभेद नहीं होता। (४) एक ओर उपालि ! तीन होते हैं, एक ओर तीन, और सातवाँ अनुश्रावण करता है, 6--0---इस प्रकार भी उपालि! संघ-राजी होती है, किन्तु संघ-भेद नहीं होता। (५) एक ओर उपालि ! तीन होते हैं, एक ओर चार, और आठवाँ अनुश्रावण करता है, 0-0--इस प्रकार भी उपालि ! संघ-राजी होती है, किन्तु संघ-भेद नहीं होता। (६) एक ओर उपालि चार होते हैं, एक ओर चार और नवा अनुश्रावण करता है, उपालि ! संघ-गजी भी होती है संघ-भेद भी। उपालि ! नव (भिक्षुओंके होने) से या नवसे अधिक होनेसे संघ-राजी भी होती है, संघ-भेद भी। उपालि ! न भिक्षुणी, संघमें भेद (-फूट) करती, हाँ भेदके लिये प्रयत्न कर सकती है । उपालि! न शिक्ष मा णा, संघमें भेद करती, हाँ भेदके लिये प्रयत्न कर सकती है। न श्रामणेर । न श्रामणेरी । न उपासक । न उपासिका । उपालि! अपराध- रहित (प्रकृतस्थ) एक आवासवाले एक सीमामें स्थित भिक्षु संघ भेद करते हैं।" 5 (२) सङ्घ-भेदकी व्याख्या "भन्ते ! संघ-भेद संघ-भेद कहा जाता है; कैने कितनेसे भन्ते! संघ भिन्न (=फूटा हुआ) होता है ?" "उपालि ! जब भिक्षु (१) अधर्म (-बुद्धका जो उपदेश नहीं) को धर्म कहते हैं, (२) धर्म को अ-धर्म कहते हैं। (३) अ-विनयको वि न य कहते हैं, और (४) विनयको अ-विनय कहते हैं । (५) नधागतके अ-भापित अ-लपितको तथागतका भापित लपित कहते हैं; (६) तथागतके भापित, लपितको तथागतका अ-मापित अ-लपित कहते हैं। (७) तथागतके अन्-आचीर्ण (=आचरण न विय कामों) को • आचीर्ण कहते हैं, (८) ० आचीर्णको ० अन्-आचीर्ण कहते हैं। (९) ० न विधान किये (: अ-प्रनप्त) को ० प्रजप्त , (१०) ० प्रजप्तको ० अ-प्रजप्त कहते हैं। (११) अन्-आपत्ति (जो अपगध नहीं) को आपत्ति ० (१२) आपत्तिको अन्-आपनि कहते हैं। (१३) लघुक-आपत्ति ( . मोटे गिने जानेवाले अपराध) को गुरुक (=बळी) आपनि कहते हैं, (१४) गुरुक-आपत्तिको लक-गपनि कहते है। (१.५) नावोप (=जिसके अतिरिक्त भी आपनियाँ बची हैं)-आपत्तियोंको निरोप-आपनियों कहते है. (१) निन्दोप-आपनियांको मावशेष-आपत्तियाँ कहते हैं। (१७) गले कम पूट होनेपर संभ-राजी और कोरम पूरा होनेपर (उसे मंघ और तबकी) परमानंद-भेद पाहते है। नम्मति लेकर प्रस्ताव जिन शब्दों में रखा जाता है उसे अनुश्रादण कहते है।